Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 183
________________ दृष्टि-दान उस उन्मुक्त सरल हास्य-ध्वनिसे मेरे अन्तरका अन्धकारपूर्ण मेघ मानो क्षण-भरके लिए हट गया। मैंने अपनी दाहिनी बाँह उसके गलेमें डालकर कहा-मैं तुमको देख रही हूँ। यह कहकर मैंने फिर एक बार उसके कोमल मुखपर हाथ फेरा । . ___"देख रही हो?" यह कहकर वह फिर एक बार जोरसे हँस पड़ी । वह बोली-- क्या मैं तुम्हारे बागकी सेम या बैंगन हूँ, जो तुम हाथ फेरकर देख रही हो कि कितना बड़ा हुआ है ? उस समय. सहसा मुझे यह ध्यान आया कि कदाचित् हेमांगिनी यह बात नहीं जानती कि मैं अन्धी हूँ। मैंने कहा-बहन, मैं अन्धी हूँ। यह सुनकर उसे कुछ आश्चर्य हुश्रा और थोड़ी देर बाद वह गम्भीर हो गई । मैंने बहुत अच्छी तरह समझ लिया कि वह अपने कुतूहलपूर्ण नेत्रोंसे मेरी दृष्टिहीन आँखों और मुँहका भाव बहुत ही ध्यानपूर्वक देख रही है। अन्तमें उसने कहा-श्रोह, तो शायद इसी लिए तुमने चाचीको यहाँ बुलवाया है ? ___ मैंने कहा-नहीं, मैंने उन्हें नहीं बुलवाया है। वह आप ही यहाँ आई हैं। बालिका फिर हँस पड़ी। उसने कहा-तो क्या वे दया करके यहाँ आई हैं ? तब तो फिर दयामयी जल्दी यहाँसे टलेंगी भी नहीं । लेकिन बाबूजीने आखिर मुझे यहाँ क्यों भेजा ? इसी समय बुझाने घरमें प्रवेश किया । अब तक वे मेरे स्वामीके साथ बातचीत कर रही थीं। उनके कमरे में प्रवेश करते ही हेमांगिनीने पूछा-चाची, हम लोग घर कब चलेंगे? बुभाने कहा-वाह ! अभी यहाँ आते देर नहीं हुई और चलने की ૧૨

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