Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 189
________________ दृष्टि-दान १८३ जाने पर मैं अपने दोनों हाथ फैलाकर अपने चारों ओर अपने समस्त संसार में देखने लगी कि कहाँ मेरा कौन है। मेरे स्वामीने श्राकर बहुत प्रसन्नता दिखलाते हुए कहा- ये लोग चली गईं, किसी तरह जान बची । अब कुछ काम धन्धा करनेके लिए समय मिला करेगा | हाय, धिक्कार है | भला मेरे लिए इतनी अधिक चतुराई क्यों ? भला क्या मैं सत्य से डरती हूँ ? क्या मुझे आघात से कभी कोई भय हुआ है ? क्या मेरे स्वामी यह बात नहीं जानते कि जिस समय मैंने अपनी दोनों खोई थीं, उस समय मैंने शान्त मनसे ही सदाके लिए अन्धकार ग्रहण किया था ? इतने दिनों तक मेरे और मेरे स्वामीके बीच केवल अन्धताका ही परदा था; पर आजसे एक और नए व्यवधानकी सृष्टि हो गईं। मेरे स्वामी कभी भूलकर भी मेरे सामने हेमांगिनीका नाम नहीं लेते। मानो उनके सम्पर्क संसार से हेमांगिनी बिलकुल लुप्त ही हो गई हो । मानो उसने उसमें कभी लेश मात्र भी रेखा पात नहीं किया । परन्तु मैं इस बातका अनायास ही अनुभव कर सकती थी कि वे पत्रद्वारा बराबर उसका समाचार जाना करते हैं । जिस दिन तालाब में बादका जल प्रवेश करता है, उसी दिन पद्मके डंठलों पर खिंचाव पड़ता है । ठीक इसी प्रकार जिस दिन मेरे स्वामीके मनमें जरा सा भी स्फीतिका संचार होता था, उसी दिन मैं अपने हृदय के मूलमेंसे उसका अनुभव कर सकती थी । मुझसे यह बात कभी छिपी नहीं रहती थी कि कब उनको हेमांगिनीका समाचार मिलता है और कब नहीं मिलता । परन्तु मैं भी उन्हें उसका स्मरण नहीं करा सकती थी । मेरे अन्धकारमय हृदमें वह जो उन्मत्त, उद्दाम, उज्ज्वल, सुन्दर तारा क्षण-भर के लिए उदित हुआ था, उसका समाचार पाने और उसके सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए मेरे प्राण तृषित रहा करते थे । परन्तु अपने स्वामी के सामने 1

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