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रवीन्द्र-कथाकुअ
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पल-भर के लिए उसका नाम लेनेका भी मुझे कोई अधिकार नहीं था । हम दोनों आदमियों के बीच में वेदनासे परिपूर्ण एक नीरवता अटल भावसे विराज रही थी !
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वैशाख मासके प्रायः मध्य में एक दिन दासीने श्राकर मुझसे पूछाबहूजी, वाटपर बड़े ठाठके साथ एक नाव तैयार हो रही है । बाबूजी कहाँ जायँगे ? मैं जानती थी कि चुपचाप कुछ उद्योग हो रहा है । मेरे भाग्य के श्राकाशमें पहले ही कुछ दिनों से वह निस्तब्धता थी, जो aar से पहले हुआ करती है और उसके उपरान्त प्रलयके छिन्न विछिन्न मेघ श्रा श्राकर एकत्र हो रहे थे । संहारकारी शंकर नीरव उँगली संकेतसे अपनी समस्त प्रलय शक्तिको मेरे सिरकी ओर भेज रहे थे । यह सब बातें मैं पहले से ही अच्छी तरह समझ मैंने दासीसे कहा – हैं ! मुझे तो अभी तक कोई खबर ही दासीका मुझसे और कोई प्रश्न करनेका साहस नहीं हुआ ठंडी साँस लेकर वहाँ से चली गई ।
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रही थी ।
नहीं है । और वह
बहुत रात बीतने पर स्वामीने मेरे पास आकर कहा - एक बहुत दूरकी जगह से मेरी बुलाहट आई है । कल सवेरे ही मुझे वहाँ जाना होगा । मैं समझता हूँ कि मुझे वहाँसे लौटनेमें दो तीन दिन लग जायँगे ।
मैं पलंग परसे उठकर खड़ी हो गई और बोली - मुझसे झूठ मूठ बातें क्यों बना रहे हो ?
मेरे स्वामीने काँपते हुए और अस्फुट स्वर से कहा- मैंने इसमें झूठ क्या कहा ?
मैंने कहा- तुम ब्याह करने जा रहे हो ।