Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 184
________________ रवीन्द्र- कथाकुञ्ज फिर लग गई ? ऐसी चंचल लड़की तो मैंने कहीं देखी ही नहीं । जल्दी टलने के ठहरा अपना सकती हो । हेमांगिनीने कहा- चाची, मुझे तो तुम्हारे यहाँसे लक्षण नहीं दिखाई देते । पर तुम्हारे लिए घर | तुम्हारी जितने दिनों तक खुशी हो, तुम पर मैं तुमसे कहे देती हूँ कि अब मैं यहाँसे चली जाऊँगी। इसके उपरान्त हेमांगिनी मेरा हाथ पकड़कर बोली- क्यों बहन, मैं ठीक कहती हूँ न ? आखिर तुम लोग कोई हमारे अपने तो हो ही नहीं ! हेमांगिनीके इस सरल प्रश्नका मैंने कोई उत्तर नहीं दिया । केवल उसे खींचकर गले से लगा लिया । मैंने समझ लिया कि बुआ चाहे कितनी ही प्रबला क्यो न हों, पर इस कन्याको सँभालना उनके लिए सम्भव नहीं है । बुझाने ऊपरसे कुछ भी क्रोध न प्रकट करके हेमांगिनी के प्रति कुछ आदर प्रकट करने की चेष्टा की । पर हेमांगिनीने मानो वह आदर अपने शरीरपरसे झिड़ककर गिरा दिया । बुधाने इन सब बातोंको उसी प्रकार उड़ा देनेकी चेष्टा की, जिस प्रकार किसी दुलारी लड़की की बातें उड़ाई जाती हैं; और वह हँसती हुई वहाँसे चलने के लिए उद्यत हुईं। पर फिर न जाने क्या सोचकर वे लौट आईं और हेमांगिनीसे बोलीं- हेमांगिनी, चलो तुम्हारे नहानेका समय हो गया । हेमांगिनीने मेरे पास आकर कहा - पने दोनों घाटपर नहाने जायँगीं । क्यों जी, ठीक है न ? इच्छा न होनेपर भी बुआ उस समय चुप रह गईं । उन्होंने सोचा कि यदि इस समय मैं बात बढ़ाऊँगी, तो अन्तमें हेमांfrotat ही जीत होगी और उन लोगोंका आपसका झगड़ा अशोभन रूपसे मेरे सामने प्रकट हो पड़ेगा । १७८ तो यह यहाँ रह खिड़कीके घाटकी तरफ जाते जाते हेमांगिनीने मुझसे पूछा- क्यों जी, तुम्हें कोई लड़का बाला क्यों नहीं हुआ ? मैंने कुछ हँसते हुए उत्तर दिया- भला मैं यह क्या जानूँ कि क्यों नहीं हुआ । ईश्वरने D

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