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दृष्टि दान
कर मुझसे कहा था-देखो कुमु, तुम नाराज न होना। अगर तुम्हारी जगह मैं होती तो अपने स्वामीका कभी मुँह भी न देग्वती । मैंने कहा था-अब मुँह देखना तो बन्द हो ही गया है। इसके लिए, तो इन कम्बख्त आँखोंपर गुस्सा आता है। पर मैं अपने स्वामीके ऊपर क्यों क्रोध करूँ ? मेरे स्वामीने ठीक समयपर डाक्टरको नहीं बुलवाया था इसी लिए लावण्य मेरे स्वामीमे बहुत नाराज थी और वह इस बातकी चेष्टा करती थी कि मैं भी उनके ऊपर नाराज हो जाऊँ। मैंने उसे समझाया कि संसाग्में रहने पर इच्छामे, अनिच्छाले, जान-बूझकर. अनजानमें, भूलमे, भ्रान्तिग्ने अनेक प्रकारके सुख और दुःख हुअा ही करते हैं । परन्तु यदि मनमें भक्ति स्थिर रक्खी जा सके. तो दुःखमें भी एक प्रकारकी शान्ति रहती है । और नहीं तो फिर केवल लड़ाई झगड़े और बकबक झक-झकमें ही सारी जिन्दगी बीत जाती है । मैं अन्धी हो गई हूँ, यह तो बहुत बड़ा दुःख है ही, अब इसके उपरान्त मैं स्वामीके प्रति विद्वेष करके दुःखका वह बोझ और अधिक क्यों बढ़ाऊँ ? मेरी जैसी बालिकाके मुखसे इस प्रकारकी बात सुनकर लावण्यने नाराज होकर अवज्ञापूर्वक सिर हिला दिया और वह उठकर चली गई। चाहे जो कहा जाय, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि बातोंमें विष होता ही है । ऐसी बातें बिलकुल व्यर्थ नहीं जातीं। लावण्यके मुखसे क्रोधकी जो बातें निकली थीं, उन्होंने मेरे मनमें भी दो एक चिनगारियाँ फेक ही दी। उन चिनगारियोंको मैंने पैरोंसे मसलकर बुझा तो दिया था ; पर फिर भी उसके दो एक दाग रह ही गये। इसी लिए मैं कहती थी कि कलकत्तेमें बहुतसे तर्क होते हैं, बहुत तरहकी बातें होती हैं । वहाँ देखते देखते अकालमें ही बुद्धि पककर कठिन हो जाती है ।
गाँवमें आनेपर मेरी उसी शिवपूजाके शीतल शेफालिकाके फूलोंकी गन्धसे हृदयकी समस्त आशाएँ और विश्वास, उसी बाल्यावस्थाके