Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 173
________________ दृष्टि-दान १६७ ___ चाहे जो कुछ कहा जाय, पर जब मैंने उन्हें मुक्ति दे दी, तब वे भी एक निःश्वास डालकर एक बड़ी भारी झंझटसे छुट्टी पा गये । जन्म-भरके लिए अपनी अन्धी स्त्रीकी सेवा करनेका व्रत लेना पुरुषका काम नहीं। मेरे स्वामी डाक्टरी पास करके मुझे अपने साथ लेकर' मुफस्सिल में चले गये। उस गाँवमें पहुँचनेपर मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो मैं अपनी माताकी गोदमें आ गई हूँ। मैं अपनी आठ वर्षकी अवस्थामें गाँव छोड़कर शहरमें गई थी। इधर दस वर्षोंमें मेरे मनमें जन्म-भूमिकी धारणा छायाके समान अस्पष्ट हो गई थी। जब तक आँखें थीं, तब तक कलकत्ता शहर चारों ओरसे मेरी समस्त स्मृतिको घेरे हुए खड़ा था। जब मेरी आँखें जाती रहों, तब मैंने समझा कि कलकत्ता केवल आँखोंको ही भुला रखनेवाला शहर है। इस शहरसे मनका सन्तोष नहीं होता। आँखोंके नष्ट होते ही मेरा वही बाल्यावस्थावाला गाँव सन्ध्याके नक्षत्रों के प्रकाशके समान मेरे मन में उज्ज्वल हो उठा। अगहनके अन्त में हम लोग हाशिमपुर गधे । नया स्थान था, इसलिए मेरी समझमें नहीं आया कि वह देखने में चारों ओर कैसा है । परन्तु फिर भी बाल्यावस्थाके उसी गन्ध और अनुभवके द्वारा उसने मेरे सभी अंगोंको घेर लिया। शिशिरसे भीगे हुए नए जोते हुए खेतोंकी वह प्रभातके समयकी हवा, वही सोनेमें ढले हुए अरहर और सरसोंके खेतोंकी सारे आकाशमें छाई हुई कोमल मीठी गन्ध, वही ग्वालोंका गान, यहाँ तक कि टूटे फूटे रास्ते से जानेवाली बैलगाड़ियोंके चलनेका शब्द भी मुझे पुलकित करने लगा। जीवनके आरम्भकी मेरी वही अतीत स्मृति अपनी अनिर्वाचनीय ध्वनि और गन्धके साथ, प्रत्यक्ष वर्तमान के समान मुझे चारों ओर से घेरकर बैठ गई। अन्धी आँखें

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