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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
बाबू मोतीलाल सोचने लगे कि यदि इस बालकको मैं अपने पास रख सकूँ, तो मेरे पुत्रवाले अभावकी पूर्ति हो जाय । केवल छोटी बालिका चारुशशिका अन्तःकरण ईर्ष्या और विद्वेषसे परिपूर्ण हो उठा।
चारुशशि अपने माता-पिताकी एक मात्र सन्तान और उनके स्नेहकी एक मात्र अधिकारिणी थी। उसके हठ और जिद आदिका कोई ठिकाना नहीं था । खाने पहनने और सिरके बाल गूंथने आदिके सम्बन्धमें उसका मत बिलकुल स्वतंत्र और निजका था; पर उस मतमें कभी किसी प्रकारकी स्थिरता नहीं दिखाई देती थी। जिस दिन कहीं किसी प्रकारका निमंत्रण आदि होता था, उस दिन उसकी माताको इस बातका डर ही लगा रहता था कि कहीं मेरी लड़की अपने बनाव-सिंगारके सम्बन्धमें कोई असम्भव जिद न ठान बैठे । यदि संयोगवश किसी दिन उसके सिरके बाल उसके मनके मुताबिक नहीं बँधते थे, तो उस दिन फिर उसके बाल चाहे जितनी बार खोलकर क्यों न बाँधे जाते, वह किसी तरह मानती ही न थी
और अन्तमें खूब रोना चिल्लाना हुआ करता था। सभी बातों में उसकी यही दशा थी । और जब किसी समय उसका चित्त प्रसन्न रहता था, तब वह कभी किसी बातपर कोई आपत्ति ही नहीं करती थी। उस समय वह बहुत अधिक प्रेम प्रकट करती हुई जोरसे अपनी माँके गलेसे लिपट जाती थी और उसे चूमकर हँसती हँसती लोट-पोट हो जाती थी। यह छोटी लड़की एक ऐसी पहेली थी, जो किसी प्रकार समझमें ही नहीं पाती थी।
यह बालिका अपने दुर्बाध्य हृदयके सारे वेगका उपयोग करके मन