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अतिथि
पढ़ो लिखोगे कुछ नहीं न ? अच्छा देखो, श्राज मास्टर साहबसे कहूँगी। ___ चारुके इस शासनसे तारापद कुछ भी भयभीत नहीं होता
और वह दो एक दिन सन्ध्याके समय उस ब्राह्मणीके घर गया भी। तीसरी या चौथी बार तारापदपर चारु केवल बिगड़कर ही नहीं रह गई, बल्कि उसने एक बार धीरेसे तारापदकी कोठरीका दरवाजा बाहरसे बन्द करके सिकड़ी लगा दी और माँके बक्समेंसे ताली ताला लाकर उसे बाहरसे बन्द भी कर दिया । सन्ध्या तक तारापदको इस प्रकार तालेमें बन्द रखकर भोजन के समय उसने द्वार खोल दिया । तारापदको क्रोध तो पाया, पर उसने कुछ कहा नहीं; और वह बिना भोजन किये ही वहाँसे चलनेका उपक्रम करने लगा। उस समय वह अनुतप्तहृदय और व्याकुल बालिका हाथ जोड़कर बहुत ही विनयपूर्वक बार बार कहने लगी-मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अब कभी ऐसा काम नहीं करूँगी। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, तुम खाकर जायो । लेकिन जब इतने पर भी तारापदने नहीं माना, तब वह अधोर होकर रोने लगी । लाचार होकर तारापद लौटाया और भोजन करने लगा।
चारुने कई बार बहुत ही दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा की कि मैं अब तारापदके साथ सद्व्यवहार किया करूँगी और कभी क्षण-भरके लिए भी उसे दुःखी न किया करूँगी । पर जब सोनामणि जैसी और भो दो-चार लड़कियाँ सामने आ जाती, तब उसका मिजाज न जाने क्यों बिगड़ जाया करता और वह किसी भी प्रकारसे अपने
आपको न सँभाल सकती । जब वह लगातार कई दिनों तक भलमनसाहतका व्यवहार करती रहती, तब तारापद सतर्क हो जाता और किसी बहुत बड़े उपद्रवकी सम्भावना समझकर उसके लिए तैयार