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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ~~~~.... ~~~~- ...
इस सभाके वार्षिक अधिवेशनके लिए मैंने एक प्रोजस्वी प्रबन्ध तैयार किया था, जिसमें कार्लाइलकी रचनाकी समालोचना थी। मेरे मनमें इस बातका दृढ़ विश्वास था कि उसकी असाधारणता देखकर सभी श्रोता चमत्कृत और चकित हो जायेंगे। कारण यह था कि मैंने अपने प्रबन्धमें श्रादिसे अन्त तक कार्लाइलकी निन्दा ही निन्दा की थी।
उस अधिवेशनके सभापति थे वही वामाचरण बाबू । जब मैं अपना प्रबन्ध पढ़ चुका, तब मेरे सहपाठी भक्त लोग मेरे मतकी असमसाहसिकता और अँगरेजी भाषाकी विशुद्ध तेजस्वितासे विमुग्ध हो गये और निरुत्तर होकर चुपचाप बैठे रहे । जब वामाचरण बाबूने जान लिया कि किसीको कुछ भी वक्तव्य नहीं है, तब उन्होंने उठकर शान्त गम्भीर स्वरसे संक्षेपमें सब लोगोंको यह बात समझा दी कि अमेरिकाके सुविख्यात सुलेखक लावेल साहबके प्रबन्धसे जो अंश चुराकर मैंने अपने प्रबन्धमें रक्खा है, वह बहुत ही चमत्कारपूर्ण है; और जो अंश मेरा बिलकुल अपना ही है, वह अंश यदि मैं छोड़ देता, तो -बहुत अच्छा होता।
यदि वे यह कहते कि नवीन प्रबन्ध-लेखकका मत और यहाँ तक कि भाषा भी लावेल साहबके मत और भाषासे बहुत अधिक मिलती जुलती है, तो उनकी यह बात ठीक भी होती और अप्रिय भी न होती । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया ।
___ इस घटनाके उपरान्त मेरे प्रति सहपाठियोंका जो अखंड विश्वास था, उसमें एक विदारण रेखा पड़ गई। केवल मेरे पुराने अनुरक्त और भक्तोंमें अग्रगण्य अमूल्यचरण के हृदयमें लेशमात्र भी विकार उत्पन्न न हुश्रा । वह मुझसे बार बार कहने लगा कि तुम अपना वह 'विद्यापति