Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 134
________________ १२८ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज वाष्पके समान अनिश्चित हैं । वे लेखक के हृदयमें आकर और जीवन प्राप्त करके सृजित नहीं हुई हैं। बिच्छूकी दुममें ही डंक होता है । वामाचरण बाबूकी समालोचनाके उपसंहारमें ही तीव्रतम विष संचित था । बैठनेसे पहले उन्होंने कहा-इस नाटकके बहुतसे दृश्य और मूल भाव गेटे-रचित 'टासो' नाटकका अनुकरण हैं ; यहाँ तक कि अनेक स्थानोंमें तो केवल अनुवाद ही करके रख दिया गया है।। इस बातका एक बहुत अच्छा उत्तर था। मैं कह सकता था कि अनुकरण हुआ करे, यह कोई निन्दाकी बात नहीं है । साहित्य-राज्यमें चोरीकी विद्या बहुत बड़ी विद्या है। यहाँ तक कि यदि आदमी पकड़ भी लिया जाय, तो भी वह भारी विद्या है । साहित्य-क्षेत्रमें काम करनेवाले बहुतसे बड़े बड़े आदमी सदासे इस प्रकारकी चोरी करते आये हैं। यहाँ तक कि शेक्सपियर भी इससे नहीं बचे हैं। साहित्य-क्षेत्रमें जो लोग सबसे अधिक मौलिक लेखक कहलाते हैं, वही चोरी करनेका भी साहस कर सकते हैं । और इसका कारण यही है कि वे दूसरोंकी चीजें बिलकुल अपनी बना सकते हैं। इस प्रकारकी और भी कई अच्छी अच्छी बातें थीं ; पर उस दिन मैंने कुछ भी नहीं कहा । इसका यह कारण नहीं था कि मुझमें उस समय विनय आ गई थी। असल बात यह है कि उस दिन मुझे इन सबमेंसे एक भी बात याद नहीं आई । प्रायः पाँच सात दिन बाद एक एक करके ये सब उत्तर दैवागत ब्रह्मास्त्रकी भाँति मेरे मनमें उदित होने लगे । लेकिन उस समय शत्रु मेरे सामने नहीं था: इसलिए वे अस्त्र उलटे मुझको ही बेधने लगे। मैं सोचने लगा कि ये बातें कमसे कम अपने क्लासके छात्रोंको तो अवश्य बतला दूँ । परन्तु ये सब उत्तर मेरे सहपाठी. गधोंकी बुद्धि के लिए बहुत ही सूक्ष्म थे । वे तो केवल यही

Loading...

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199