Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 149
________________ अध्यापक १४३ कि मुझे क्या करना चाहिए । इतनेमें किरणने बहुत ही नम्रतापूर्वक और बहुत ही अच्छे ढंगसे नमस्कार किया। मैंने भी जल्दी अपनी गलती सुधारते हुए उसके नमस्कारका बदला चुकाया । भवनाथ बाबूने कहा-बेटी, महीन्द्र बाबूके लिए एक प्याला चायका ला देना होगा। मैं मन ही मन बहुत ही संकुचित हुा। पर मेरे मुँहसे कुछ शब्द निकलनेसे पहले ही किरण कमरेसे बाहर निकल गई । मुझे ऐसा जान पड़ा कि कैलासवासी सनातन भोलानाथने अपनी कन्या लक्ष्मीको ही अतिथिके लिए एक प्याला चाय लानेके लिए कहा है। अतिथिके लिए तो वह निश्चय ही शुद्ध अमृत होगा। परन्तु फिर भी, पासमें कोई नन्दी भृगी उपस्थित नहीं था ! अब मैं भवनाथ बाबूके यहाँ नित्य अतिथि बनकर पहुंचने लगा। पहले मैं चायसे बहुत डरा करता था । पर अब सबेरे सन्ध्या दोनों समय मुझे चाय पीनेका नशा-सा हो गया। हम लोगोंकी बी० ए० की परीक्षाके लिए एक जर्मन विद्वानका बनाया हुआ दर्शनशास्त्रका एक नया इतिहास था, जो मैंने हालमें ही पढ़ा था । कुछ दिनों तक तो मैंने यही प्रकट किया कि मैं उसी दर्शनशास्त्रकी आलोचना करनेके लिए भवनाश बाबूके पास आया करता हूँ। वे अभी तक हैमिल्टन आदि पुराने लेखकोंकी ही कुछ भ्रान्त पुस्तके पढ़ा करते थे ; इसलिए मैं उन्हें कृपापात्र समझा करता और अपनी नई विद्या बहुत ही आडम्बरके साथ उनपर प्रकट किया करता । भवनाथ बाबू इतने बड़े भले आदमी और सभी विषयोंमें इतने अधिक संकोची थे कि मेरे जैसे अल्पवयस्कके मुंहसे निकली हुई भी सब बातें मान लेते ! यदि उन्हें मेरी किसी बातका तनिक भी प्रतिवाद करना

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