Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 155
________________ अध्यापक १४६ । मेरे समस्त दिन और समस्त रात्रियाँ अमृत से परिपूर्ण हो गईं। मेरे सारे विचार और सारी कल्पनाएँ क्षण क्षण में नई नई शाखाओं और प्रशाखाका विस्तार करके किरणको लताकी भाँति मेरे चारों ओर लपेटकर मु बाँधने लगीं। जिस समय वह शुभ अवसर श्रावेगा, उस समय मैं किरणको क्या पढ़ाऊँगा, क्या सिखाऊँगा, क्या सुनाऊँगा, क्या दिखाऊँगा, इत्यादि इत्यादि अनेक प्रकारकी कल्पनाओं और संकल्पोंसे मेरा मन मानो श्राच्छन्न हो गया यहाँ तक कि मैंने निश्चय किया कि मैं उसे ऐसी शिक्षा दूँगा, जिसमें उसके मनमें जर्मन विद्वानके बनाये हुए दर्शन - शास्त्र के नवीन इतिहास के प्रति भी उत्सुकता उत्पन्न हो । क्योंकि यदि मैं ऐसा न करूँगा, तो वह मुझे पूरी तरह न समझ सकेगी । अँगरेजी काव्य - साहित्य के सौन्दर्य के प्रकाशमें मैं उसे मार्ग दिखलाकर ले चलूँगा। मैं मन ही मन हँसा और बोला -- किरण, तुम्हारी आमकी बारी और बैंगनका खेत मेरे लिए नवीन राज्य है । मैं कभी स्वप्नमें भी यह बात नहीं जानता था कि वहाँ बैंगन और गिरे पड़े कच्चे आमों के सिवा दुर्लभ अमृत फल भी इतने सहज में मिल सकता है । किन्तु जब समय थावेगा, तब मैं भी तुम्हें एक ऐसे राज्य में ले चलूँगा, जहाँ बैंगन तो नहीं फलते, परन्तु फिर भी बैंगनोंका अभाव क्षण-भर के लिए भी अनुभव नहीं किया जा सकता । वह ज्ञानका राज्य और भावोंका स्वर्ग है । जिस प्रकार सूर्यास्त के समय दिगन्त में विलीन होनेवाला पाण्डु वर्णका सन्ध्या-तारा धनी होनेवाली सन्ध्या में धीरे धीरे परिस्फुट दीप्ति प्राप्त करता है, उसी प्रकार किरण भी कुछ दिनों में अन्दर ही अन्दर श्रानन्द, लावण्य और नारीत्वकी पूर्णतासे मानो प्रस्फुटित हो उठी । वह मानो अपने घर में, अपने संसारके ठीक मध्य आकाश में, अधिरोहण करके चारों धोर आनन्दकी मंगल ज्योति विकीर्ण करने लगी । उसी

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