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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
से भइया मेरी जो यह चिकित्सा कर रहे हैं, इसमें मेरे लिए अशुभ छोड़कर शुभ नहीं है।
जान पड़ता है कि मेरी उस प्रगल्भतासे भइयाको भी कुछ आश्चर्य हुआ । कुछ देर तक चुपचाप सोचने के उपरान्त उन्होंने मुझसे कहाअच्छा, अब मैं डाक्टर तो फिर नहीं लाऊँगा। पर हाँ, जो दवा आवेगी, उसका एक बार अच्छी तरह सेवन अवश्य कर देखना। जब दवा आ गई, तब भइयाने मुझे उसके व्यवहारके नियम आदि बतला दिये और आप चले गये। अपने स्वामीके कालिजसे आने के पहले ही मैंने वह शीशी, उसका खाना, सलाई और विधि-विधान आदि सबको उठाकर अपने आँगनके कतवारखानेमें फेंक दिया । __ मानो भइयाके साथ कुछ जिद पड़ जाने के कारण ही मेरे स्वामी और भी दूनी चेष्टासे मेरी आँखोंकी चिकित्सा प्रवृत्त हुए । सबेरे सन्ध्या दोनों समय दवा बदली जाने लगी। मैंने आँखोंपर पट्टी बाँधी, चश्मा लगाया, बूंद बूंद करके दवा डाली, पुल्टिश बाँधी और जब मछलीका बदबूदार तेल पीनेपर अन्दरका पाकयंत्र तक बाहर निकलनेका उद्योग करने लगा, तब भी मैं अपने आपको दमन किये रही। जब स्वामी पूछते थे--अब कैसा मालूम होता है ? तब मैं कह दिया करती थीअब तो बहुत कुछ अच्छी हो चली हूँ। मैं अपने मनसे भी यही चेष्टा करती थी कि मानो मैं अच्छी हो रही हूँ। जब आँखोंसे अधिक जल जाने लगता था, तब मैं सोचती थी कि इस जलका कटकर निकल जाना भी अच्छा ही लक्षण है । और जब जल निकलना बन्द हो जाता था, तब सोचती थी कि अब मैं आरोग्यके पथपर पहुँच गई हूँ।
पर कुछ दिनोंके उपरान्त यंत्रणा असह्य हो उठी। अब सब चीजें बहुत ही धुंधली दिखाई पड़ने लग गईं और सिरकी पीड़ाके कारण तो मैं परेशान रहने लगी। मैंने देखा कि मेरे स्वामी भी अब कुछ अप्रति