Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 168
________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उनका दाहिना हाथ पकड़कर दबाते हुए कहा-चलो यह भी तुमने बहुत अच्छा किया। वह तुम्हारी चीज थी, तुमने ही ले ली। भला तुम्हीं सोचो कि यदि किसी दूसरे डाक्टरके हाथसे मेरी आँख खराब हुई होती, तो उसमें मेरे लिए कौन-सी सान्त्वना रह जाती ? जो कुछ होनेको होता है, वह तो होकर ही रहता है। मेरी आँखोंको तो कोई बचा ही नहीं सकता था। ये आँखें तुम्हारे हाथसे गई, बस मेरे अन्धे होनेका यही एक सुख है । जब पूजनमें फूल कम पड़ गये थे, तब रामचन्द्र अपनी दोनों आँखें निकालकर देवतापर चढ़ाने चले थे। मैंने भी अपने देवताको अपनी दृष्टि दे दी। तुम अपनी आँखोंसे जब कोई अच्छी और देखने योग्य चीज देखना, तब मुँहसे मुझसे भी कह देना। वह मैं तुम्हारी आँखोंका देखा हुआ प्रसाद समझकर ग्रहण करूँगी। मैं सहसा इतनी अधिक बातें नहीं कह सकती थी और न सम्मुख इस प्रकार कहा ही जा सकता है। मैं ये सब बातें बहुत दिनों तक सोचती रही हूँ। बीच बीचमें जब कभी अवसाद श्राता था, निष्ठाका तेज कुछ मन्द पड़ जाता था, अपने आपको वंचित, दुःखित और दुर्भाग्य-दग्ध समझने लगती थी, तब मैं इसी प्रकारकी बातें सोच सोचकर अपना मन बहलाया करती थी। इसी शान्ति और इसी भक्तिका अवलम्बन करके मैं अपने आपको अपने दुःखसे भी अधिक ऊपर उठानेकी चेष्टा करती थी। जान पड़ता है कि उस दिन मैं अपने मनके कुछ भाव जबानी कहकर और कुछ भाव केवल चुप रहकर ही उन्हें एक प्रकारसे अच्छी तरह समझा सकी थी। उन्होंने कहा-कुसुम, मैंने मूढ़ता करके तुम्हारा जो कुछ नष्ट किया है, वह तो अब मैं किसी प्रकार तुम्हें लौटा नहीं सकता; परन्तु जहाँ तक मुझसे हो सकेगा, मैं तुम्हारा आँखोंका अभाव दूर करके तुम्हारे साथ साथ रहा करूँगा ।

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