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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
होता, तो वे अस्थिर हो जाते । उन्हें यही डर लगा रहता कि कहीं मैं उनकी बातोंसे नाराज न हो जाऊँ। जब हम लोग इस प्रकारके तत्त्वालोचनमें लग जाते, तब किरण किसी बहानेसे वहाँसे उठकर चली जाती । उस समय मेरे मनमें कुछ क्षोभ उत्पन्न होता; पर साथ ही मैं कुछ गर्व भी अनुभव करता । क्योंकि मेरी समझमें हम लोगोंके पालोच्य विषयका दुरूह पाण्डित्य किरणके लिए दुःसह था । वह जब मन ही मन हम लोगों के विद्यारूपी पर्वतका परिमाप करती होगी तब मेरी समझमें उसे बहुत ही ऊँचेकी ओर सिर उठाना पड़ता होगा!
जब मैं किरणको दूरसे देखता था, तब मैं उसे शकुन्तला और दमयन्ती आदि विचित्र नामों और विचित्र भावोंसे समझा करता था। पर जब मैं उसके घर आने जाने लगा, तब मैंने यह समझना श्रारम्भ किया कि वह किरण है। अब वह संसारकी विचित्र नायिकाओंकी छायारूपिणी नहीं रह गई । अब वह केवल किरण ही है । अब वह सैकड़ों शताब्दियोंके काव्य-लोकसे अवतीर्ण होकर. अनन्त काल के युवकचित्तके स्वप्न स्वर्गका परिहार करके एक निर्दिष्ट बंगालीके घरमें कुमारी कन्याके रूपमें विराज रही है। वह मेरे साथ मेरी ही मातृभाषामें घरकी बहुत ही साधारण बातें किया करती है । साधारण बातोंमें वह सरल भावसे हँस पड़ती है । वह हम ही लोगोंके घरकी लड़कियों की भांति दोनों हाथों में सोनेके दो कड़े पहिनती है । उसके गलेके हारमें भी कोई विशेषता नहीं है, पर फिर भी वह बहुत सुमिष्ट है। साड़ीका आँचल कभी तो जूड़ेके ऊपरी भाग परसे तिरछा होकर आता है और कभी पितृ. गृहके अनभ्यासके कारण खिसककर नीचे गिर जाता है। मेरे लिए यह बहुत ही आनन्दकी बात होती है । वह काल्पनिक नहीं है, वह सत्य है ; वह किरण है ; वह इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ; और