________________
१३२
रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
यह स्वप्नाविष्ट कवि होगा और चारों ओर भावोंका राज्य तथा बहिःप्रकृति होगी। काननमें पुष्प होंगे ; शाखाओंपर पक्षी होंगे ; आकाशमें तारे होंगे ; मनमें विश्वजनीन प्रेम होगा ; और लेखनीके मुखसे अश्रान्त अजस्त्र भावोंका स्रोत विचित्र छन्दोंमें प्रवाहित हुश्रा करेगा । परन्तु अब कहाँ प्रकृति और कहाँ प्रकृतिका कवि, कहाँ विश्व और कहाँ विश्वप्रेमिक, एक दिनके लिए भी मैं बागसे बाहर नहीं निकला । काननके फूल काननमें ही खिलते ; आकाशके तारे श्राकाशमें ही उगते ; वट वृक्षकी छाया उसके नीचे ही रहती ; और घरका दुलारा मैं घरमें ही पड़ा रहा करता।
जब मेरा क्रोध और क्षोभ किसी प्रकार अपना माहात्म्य प्रमाणित न कर सका, तब वामाचरणके प्रति वह और भी अधिकाधिक बढ़ने लगा।
उस समय देशके शिक्षित समाजमें बाल्यविवाहके सम्बन्धमें वाग्युद्ध छिड़ा हुआ था । वामाचरण बाल्यविवाहके विरुद्ध पक्षमें थे। उसी समय मैंने लोगोंसे यह भी सुना कि वे एक युवती कुमारीके प्रेमपाशमें बंधे हुए हैं और शीघ्र ही परिणय-पाशमें बद्ध होनेकी प्रत्याशा कर रहे हैं।
मुझे यह विषय बहुत ही कौतुकजनक जान पड़ता ; और उधर विश्वप्रेमका महाकाव्य भी किसी प्रकार मेरे हाथ न लगता । इसलिए मैंने बैठे-बैठे वामाचरणको तो नायक बनाया और कदम्बकली मजूमदार नामकी एक कल्पित नायिका खड़ी करके एक बहुत तीव्र प्रहसन लिख डाला । जब मेरी लेखनी यह अमर कीर्ति प्रसव कर चुकी, तब मैं कलकत्ते लौट चलनेका उद्योग करने लगा। परन्तु इसी समय एक बाधा आ पड़ी।