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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
काटकर खाया हुआ एक अधपका अमरुद गिर पड़ा और लुढ़कता हुआ नीचेकी सीढ़ीपर ा पड़ा। उस अमरूदपर उसके दाँतोंके चिह्न थे और उसने उसे होठोंसे लगाया था, इसलिए उसके वास्ते मेरा सारा अन्तःकरण उत्सुक हो उठा। परन्तु उस समय मल्लाहोंकी लज्जाके कारण मैं उसे दूरहीसे देखता चला गया । मैंने देखा कि उत्तरोत्तर लोलुप होनेवाले ज्वारका जल छल छल करता हुअा अपनी लोल रसनाके द्वारा वह फल प्राप्त करने के लिए बार बार आगे बढ़ रहा है। मैंने समझ लिया कि आध घण्टेमें उसका यह निर्लज्ज अध्यवसाय चरितार्थ हो जायगा। उस समय मैं बहुत ही कष्टपूर्ण चित्तसे अपने मकान के पासवाले घाटपर पहुँचकर नावसे उतर पड़ा।
अब मैं फिर उसी वट वृक्षकी छायामें पैर पसारकर दिन-भर स्वप्न देखने लगा। मैं देखता कि दो कोमल पद-पल्लवोंके नीचे विश्वप्रकृति सिर झुकाकर पड़ी हुई है। मैंने देखा कि आकाश प्रकाशमान हो रहा है, पृथ्वी पुलकित हो रही है और वायु चञ्चल हो रहा है । उन सबके बीचमें वे दोनों खुले हुए पैर बिलकुल स्थिर, शान्त और बहुत ही सुन्दर जान पड़ते हैं । वे यह नहीं जानते कि हमारी ही धूलकी मादकतासे तप्त-यौवन नव-वसन्त दिशा-विदिशाओं में रोमाञ्चित हो उठा है । __ अब तक प्रकृति मेरे लिए विक्षिप्त और विच्छिन्न थी। नदी, वन
और अाकाश सभी मेरे लिए स्वतंत्र थे। आज उसी विशाल, विपुल विकीर्णतामें जब मुझे एक सुन्दरी प्रतिमूर्ति दिखाई दी तब.मानो वे सभी अवयव धारण करके एक हो गये । अाज प्रकृति मेरे लिए एक
और सुन्दर दीख पड़ी । वह मुझसे भूक भावसे विनय कर रही है कि मैं मौन हूँ, तुम मुझे भाषा दो । मेरे अन्तःकरणमें जो एक अव्यक्त स्तव उठ रहा है, उसे तुम छन्द, लय और तानमें अपनी सुन्दर मानवभाषामें ध्वनित कर दो।