Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 131
________________ अध्यापक १२६ AAMANA था; समालोचना करता था ; और सब प्रकारसे अपने सहपाठियोंकी ईर्ष्या और श्रद्धाका पात्र हो गया था। ___ मैं इसी प्रकार अन्ततक अपनी महिमा बनाये रखकर कालिजसे बाहर निकल सकता था। परन्तु इसी बीचमें मेरे ख्यातिस्थानका शनि एक नये अध्यापककी मूर्ति धारण करके कालिजमें उदित हो गया। __हम लोगोंके उस समय के वे नये अध्यापक अाजकलके एक बहुत प्रसिद्ध आदमी हैं । इसलिए यदि मैं अपने इस जीवन-वृत्तान्तमें उनका नाम छिपा भी रक्खू तो उनके उज्ज्वल नामकी कोई विशेष क्षति न होगी । मेरे प्रति उनका जो कुछ अाचरण था उसका ध्यान रखते हुए इस इतिहासमें उनका नाम वामाचरण बाबू रहेगा। उनकी अवस्था हम लोगोंकी अवस्थासे कुछ बहुत अधिक नहीं थी। अभी थोड़े ही दिन हुए, वे एम० ए० की परीक्षामें प्रथम हुए थे; और टानी साहबसे विशेष प्रशंसा प्राप्त करके कालिजसे बाहर निकले थे। परन्तु वे ब्रह्मसमाजी थे, इसलिए हम लोगोंसे बिलकुल अलग और स्वतंत्र रहते थे। वे हम लोगोंके समकालीन और समवयस्क नहीं जान पड़ते थे। हम सब हिन्दू नवयुवक आपसमें उन्हें ब्रह्म-दैत्य कहा करते थे। हम लोगोंकी एक सभा थी, जिसमें हम सब मिलकर किसी विषयपर तर्क-वितर्क और वाद-विवाद किया करते थे। उस सभाका मैं ही विक्रमादित्य था और मैं ही नवरत्न था। सब मिलाकर हम छत्तीस आदमी उस सभाके सभ्य थे। यदि इनमें से पैंतीस आदमियोंको गिनतीमें न भी लिया जाता, तो भी कोई विशेष हानि नहीं थी। और इस एक बचे हुए आदमीकी योग्यताके सम्बन्धमें जो कुछ, मेरी धारणा थी, वही धारणा शेष पैंतीस श्रादमियोंकी भी थी।

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