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अतिथि
ही दुःखी पर गम्भीर भावसे बैठा हुआ था। इतने में चारु दरवाजे पर श्राकर खड़ी हो गई । वह मन ही मन सोचती थी कि आज मुझे जरूर मार पड़ेगी। परन्तु उसकी वह आशा पूरी नहीं हुई । तारापदने उससे बात न की और वह चुपचाप बैठा रहा । बालिका कभी कोठरीके अन्दर आती और कभी बाहर चली जाती। वह बार बार उसके बहुत पास पहुँच जाती। यदि तारापद चाहता, तो सहज में ही उसकी पीठपर धौल जमा सकता था। परन्तु उसने ऐसा नहीं किया और वह चुपचाप गम्भीर भाव धारण किये हुए बैठा रहा । बालिका बहुत मुश्किल में पड़ गई। क्षमा-प्रार्थना किस प्रकार की जाती है, इस विद्याका तो उसने आज तक कभी कोई अभ्यास किया ही नहीं था ; पर उसका अनुतप्त तुद्र हृदय अपने सहपाठीसे क्षमा प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक कातर हो रहा था। अन्तमें कोई उपाय न देखकर उसने उस फटी हुई कापीका एक टुकड़ा उठा लिया और तारापदके पास बैठकर उसपर बहुत बड़े बड़े अक्षरों में लिखा-अब मैं कभी कापीपर स्याही न गिराऊँगी । जब वह लिख चुकी, तब उस लेखकी
ओर तारापदका ध्यान आकर्षित करनेके लिए वह अनेक प्रकारकी चंचलताएँ करने लगी। यह देखकर तारापद अपनी हँसी न रोक सका। वह ठठाकर हँस पड़ा । उस समय बालिका लज्जा और क्रोधसे पागल हो गई और जल्दीसे दौड़कर कोठरीके बाहर चली गई। उसके हृदयका वह निदारुण क्षोभ तभी मिट सकता था जब कि वह कागजके उस टुकड़ेको, जिसपर उसने अपने हाथसे लिखकर दीनता प्रकट की थी, अनन्त काल और अनन्त जगतसे पूर्ण रूपसे विनष्ट कर सकती।
उधर संकुचित-चित्त सोनामणि दो एक दिन श्राकर उस कमरेमें बाहरहीसे ताक झाँककर चली गई थी, जिस कमरेमें तारापद के साथ चारु पढ़ा करती थी । सखी चारुशशिके साथ सभी बातों में उसको