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अतिथि
___ श्रावण मासमें विवाहके लिए एक शुभ दिन स्थिर करके बाबू मोतीलालने तारापदकी माता और भाइयोंको लाने के लिए आदमी भेजा, पर तारापदको इस बातकी कोई खबर न होने दी। अपने कलकत्तेवाले गुमाश्तेको उन्होंने बढ़िया बाजों आदिका बयाना देनेका श्रादेश लिख भेजा और साथ ही दूसरी अनेक अावश्यक चीजोंकी फेहिरिस्त भी तैयार करके भेज दी।
श्राकाशमें नवीन वर्षा के बादल उठे । गाँवकी नदी इतने दिनोंमें प्रायः बिलकुल सूख गई थी। बीच बीचमें कहीं कहीं किसी कुण्ड या गड्ढे में पानी दिखलाई देता था। छोटी छोटी नावें उसी कीचड़-भरे पानीमें पड़ी हुई थीं; और जिस स्थान पर नदीका पाट बिलकुल सूख गया था, उस स्थानपर बैलगाड़ियों आदिके श्राने जानेसे पहियोंके कारण गहरी लकीरें पड़ गई थीं । ऐसे समयमें एक दिन पितृगृहसे लौटकर आनेवाली पार्वतीके समान कहींसे द्रुतगामिनी जलधारा कलकलहास्य करती हुई गाँवके शून्य वक्षपर आ पहुँची। नंगे बालक और बालिकाएँ नदी-तटपर श्रा-आकर जोर जोरसे चिल्लाते हुए नाचने लगे। वे सब अतृप्त आनन्दसे बार बार जल में कूदकर नदीको मानो प्रालिंगन करते हुए तैरने लगे। कुटीरोंमें रहनेवाली स्त्रियाँ अपनी परिचित संगिनीको देखने के लिए बाहर निकल आई। मानो शुष्क और निर्जीव ग्राममें न जाने कहाँसे प्राण की एक विपुल तरंगने आकर प्रवेश किया। बोझसे लदी हुई छोटी बड़ी अनेक नावें देश विदेश से आने लगीं । सन्ध्या समय घाटपर विदेशी मल्लाहोंके संगीतकी ध्वनि उठने लगी। नदीके दोनों तटोंकी गाँवरूपी कन्याएँ साल-भर अपने एकान्त कोनों में अपनी छोटी-सी गृहस्थी लेकर अकेली दिन बिताया करती हैं । वर्षा के समय बाहरकी विशाल पृथ्वी अनेक प्रकारके विचित्र पण्यरूपी उपहार लेकर और गैरिक रंगके जलरथ पर चढ़कर इन ग्राम-कन्याओंकी खबर लेने के