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रबीन्द्र-कथाकुञ्ज
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बहुत अधिक घनिष्टता थी ; परन्तु तारापदके सम्बन्धमें वह चारुको बहुत अधिक भय और सन्देहकी दृष्टिसे देखा करती थी। चारु जिस समय अन्तःपुरमें होती थी, ठीक उसी समय सोनामणि संकोचपूर्वक तारापदके दरवाजे के पास आकर खड़ी हो जाती। तारापद पढ़ना छोड़. कर सिर उठाकर स्नेहपूर्वक पूछता-क्यों सोना, क्या हाल चाल है ? मौसी कैसी हैं ?
सोनामणि कहती-तुम तो उधर बहुत दिनोंसे आते ही नहीं हो। माँने तुमको जरा बुलाया है। माँकी कमरमें दर्द है ; इसी लिए वह तुम्हें देखनेके लिए यहाँ नहीं आ सकती।
ऐसे ही समयमें यदि सहसा चारु वहाँ आ पहुँचती तो सोनामणि हक्की-बक्की-सी होकर रह जाती। मानो वह छिपकर अपनी सखीकी सम्पत्ति चुराने के लिए आई हो । चारु अपना स्वर सप्तमपर चढ़ाकर कहती--क्यों सोना, तुम पढ़नेके समय दिक करने के लिए आई हो ? मैं अभी जाकर बाबूजीसे कह दूंगी। चारु मानो स्वयं ही तारापदकी प्रवीण अभिभाविका हो । मानो दिन रात उसका ध्यान केवल इसी बासपर रहता हो कि तारापदके पढ़ने लिखने में लेश मात्र भी बाधा न पड़े । परन्तु वह स्वयं किस अभिप्रायसे इस असमयमें तारापदके पढ़नेके कमरेमें आ पहुँचती, यह अन्तर्यामीके लिए अगोचर नहीं था और तारापद भी अच्छी तरह जानता था । परन्तु बेचारी सोनामणि बहुत ही भयभीत होकर तुरन्त ही एक बिलकुल झूठी कैफियत गढ़ लेती । अन्तमें चारु जब घृणापूर्वक उसे मिथ्यावादी ठहराती, तब वह लजित, शंकित और पराजित होकर व्यथित हृदयसे वहाँसे चली जाती । दयाई तारापद उसे बुलाकर कहतासोना; आज सन्ध्या समय मैं तुम्हारे घर आऊँगा । चारु नागिनकी तरह फुफकारकर गरज बैठती-हाँ, हाँ, जाओगे क्यों नहीं !