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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
तरापढ़ने कहा- जो कुछ मिल जाय, वही खा लेता हूँ । और फिर मैं नित्य तो रातको खाता भी नहीं ।
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आतिथ्य ग्रहण में इस सुन्दर वालककी उदासीनता अन्नपूर्णाको कुछ कुछ कष्ट देने लगी । वह बहुत चाहती थी कि मैं अच्छी तरह खिला पहनाकर इस गृहच्युत बालकको भली भाँति तृप्ति कर दूँ । पर उसे किसी प्रकार इस बातका पता ही न चला कि आखिर किस बात से तारापदका परितोष होता है । अन्नपूर्णाने नौकर को बुलाकर गाँव से दूध और मिठाई आदि खरीद लाने के लिए कहा। तारापदने यथापरिमाण आहार तो कर लिया; परन्तु दूध नहीं पीया । मौन स्वभाव मोतीलाल बाबूने भी उससे दूध पी लेने के लिए अनुरोध किया । पर उसने संक्षेप में यही कह दिया कि मुझे दूध अच्छा नहीं लगता ।
इसी प्रकार नदी में नावपर ही दो तीन दिन बीत गये । तारापद रसोई बनाने और परोसने तथा बाजारसे सौदा सुलफ लानेसे लेकर नाव चलाने तक के सभी कामों में अपनी इच्छा और बहुत ही तत्परता से योग दिया करता था । जो दृश्य उसकी आँखोंके सामने आता था, उसी ओर उसकी कुतूहलपूर्ण दृष्टि दौड़ जाती थी । जो काम उसके हाथके आगे आ जाता था, उसमें वह ग्राप ही आप श्राकुष्ट होकर लग जाता था । उसकी दृष्टि, उसके हाथ, उसका मन सभी सदा सचल रहा करते थे और इसी लिए वह नित्य सचला प्रकृतिके समान सदा निश्चिन्त, उदासीन और सदा क्रियासक्त रहता था । प्रत्येक मनुष्यकी एक निजकी स्वतंत्र अधिष्ठान-भूमि हुआ करती है । परन्तु तारापद इस अनन्त नीलाम्बरवाही विश्वप्रवाह में एक आनन्दोज्ज्वल तरंगके समान था । भूत या भविष्य के साथ उसका किसी प्रकारका कोई बन्धन नहीं था । सामनेकी ओर बढ़े चलना ही उसका एक मात्र कार्य था ।