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अतिथि
सा दल इन मेलों के आमोद-चक्रमें योग दिया करता था। तारापदने पहले तो नाववाले एक दूकानदारके साथ मिलकर पान बीड़े बेचनेका भार लिया। इसके उपरान्त अपने स्वभाविक कुतूहलके कारण वह जिम्नास्टिक-वाले बालकोंका व्यायाम-नैपुण्य देखकर उनकी ओर आकृष्ट हुआ और उन्हींके दल में जा मिला। तारापदने स्वयं ही अभ्यास करके बहुत अच्छी तरह वंशी बजाना सीख लिया था। जिस समय जिम्नास्टिक होता, उस समय वह द्रुत तालमें वंशीमें लखनऊकी ठुमरी बजाया करता । बस यही उसका एक काम था।
अन्तिम बार वह इसी दल मेंसे भागा था। उसने सुना कि नन्दीग्रामके जमींदार लोग मिलकर यात्रा या रास-धारियोंकी एक बहुत बड़ी मंडली खड़ी कर रहे हैं। यही सुनकर वह अपनी छोटी-सी गठरी लेकर नन्दीग्राम जानेका आयोजन करने लगा और इसी बीचमें मोती बाबूके साथ उसकी भेट हो गई।
यद्यपि तारापद कई दलोंमें रह चुका था, पर अपनी प्रकृतिके कारण उसने किसो दलकी कोई विशेषता नहीं प्राप्त की थी। अपने अन्तरमें वह सदा पूर्णरूपसे निर्लिप्त और मुक्त था। वह संसारकी अनेकों कुत्सित बातें सदा सुना करता और अनेक कदर्य दृश्य उसकी आँखोंके सामने से गुजरते; परन्तु उन सब बातोंको उसके मनमें संचित होनेका तिलमात्र भी अवसर नहीं मिला। इस लड़केका उन सब बातोंमेंसे किसीपर भी ध्यान नहीं । जिस प्रकार और किसी तरहका कोई बन्धन उसे नहीं बाँध सकता था, उसी प्रकार अभ्यास-बन्धन भी उसके मनको बद्ध नहीं कर सका। वह इस संसारके गँदले जलके ऊपर शुभ्र-पक्ष राजहंसकी भाँति सदा अलग ही घूमा करता । वह अपने कुतूहलके कारण उस गैंदले जलमें चाहे जितने बार डुबकी लगाता, पर फिर भी उसके पंख गीले या मलिन नहीं हुए। इसी लिए इस गृह