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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
के ताल पर उसका सारा शरीर हिलने लगता । जिस समय वह बहुत छोटा था, उस समय भी संगीत-सभामें वह इस प्रकार संयत और गम्भीर वयस्कके समान प्रात्म-विस्मृत होकर बैठा बैठा हिला करता कि उसे देखकर बूढ़े लोगोंको अपनी हँसी रोकना कठिन हो जाता। केवल संगीत ही क्यों, जिस समय वृक्षोंके घने पत्तोंपर श्रावणकी वृष्टिकी धारा पड़ती, आकाशमें मेघ गरजता, जंगल में मातृहीन दैत्य-शिशुके रोनेके समान हवाकी सनसनाहट होती, उस समय भी उसका चित्त मानो बहुत ही उच्छृङ्खल हो उठता । जब निस्तब्ध दोपहरके समय बहुत दूर श्राकाशमें चील चिल्लाती, वर्षा ऋतुमें सन्ध्याके समय मेंढक बोलते, गम्भीर रात्रिमें गीदड़ चिल्लाते, तब भी वह मानो उतावला-सा होकर बहक उठता । इसी संगीतके मोहसे आकृष्ट होकर वह शीघ्र ही भजनीकोंके एक दलमें आकर सम्मिलित हो गया। भजनीकोंके उस दलका अध्यक्ष बहुत ही यत्नपूर्वक उसे गाना सिखलाया करता और उसे अपने भजन तथा गीत आदि कंठ कराया करता । वह उसे अपने हृदयरूपी पिंजरेके पक्षीके समान प्रिय समझता और उसके साथ स्नेह करता। परन्तु पक्षीने कुछ कुछ गाना सीखा और एक दिन प्रातःकाल वह वहाँसे उड़कर चला गया!
अन्तिम बार वह एक जिम्नास्टिक-वालोंके दल में जा मिला । उस प्रान्तमें ज्येष्ठ मासके अन्तसे लेकर आषाढ़ मासके अन्त तक स्थान स्थानपर एकके बाद एक, अनेक मेले हुआ करते हैं । उन्हीं मेलों में जाकर कमाने खानेके लिए कई रासधारी, गाने बजानेवाले भजनीक, कवि, नाचनेवाली स्त्रियाँ और तरह तरहकी चीजें बेचनेवाले दूकानदार श्रादि नावोंपर चढ़कर छोटी छोटी नदियों जौर उपनदियों
आदिमेंसे होते हुए एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाया करते हैं । पिछले वर्षसे कलकत्तेके जिम्नास्टिक-वालोंका भी एक छोटा