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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
अपूर्व किसी अमंगलकी आशंकासे चिन्तित हो गये । बिना विलम्ब किये वे बहनके घर जा पहुंचे। ___ मातासे मिलते ही उन्होंने पूछा--माँ, सब कुशल तो है ? माँने कहा-बेटा, सब कुशल है । तू छुट्टीमें घर नहीं गया, इस कारण मैं तुझे लेने आई हूँ।
अपूर्वने कहा-इसके लिए इतना कष्ट उठाकर आनेकी क्या प्रावश्यकता थी ? कानूनकी परीक्षा थी, पढ़ना बहुत पड़ता है, इत्यादि इत्यादि।
भोजनके समय बहनने पूछा-भैया, अबकी बार तुम भाभीको साथ क्यों नहीं ले आये ?
भैया गंभीर भावसे कहने लगे-कानूनकी परीक्षा थी, पढ़ना बहुत पड़ता है, इत्यादि इत्यादि।
बहनोईने कहा-इस दलीलमें कुछ दम नहीं है । वास्तवमें हम लोगोंके भयसे लानेका साहस नहीं हुआ !
बहनने कहा--तुम्हारे भयंकर होने में क्या सन्देह है ! कच्ची उमरके आदमी तुम्हें देखकर यों ही चौंक उठते हैं !
इस तरह हास्य-परिहास होने लगा ; परन्तु अपूर्व बहुत ही चिन्तित हो रहे थे। उन्हें कोई बात अच्छी ही नहीं लगती थी । वे सोचते थे कि जब माँ कलकत्ते आईं, तब यदि मृण्मयी चाहती तो उनके साथ अनायास ही आ सकती । जान पड़ता है, माँने उसे लानेकी चेष्टा भी की होगी ; परन्तु वह राजी नहीं हुई। इस विषयमें संकोचके कारण वे माँसे कोई प्रश्न भी न कर सके-उन्हें शुरूसे अखीर तक सारा मानव-जीवन और सारी विश्व-रचना भ्रान्ति-संकुल जान पड़ने लगी।
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