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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
मान है और वह कालेजके छात्र-निवासके बीच कितने ही धीवरोंके कंधों पर चढ़कर हा हू हा हू शब्द करती हुई अनायास ही प्रवेश कर रही है।
अब मुझसे और अधिक विलम्ब सहन नहीं हुआ। थोड़ी ही देरके बाद मैं धीरे धीरे जीने परसे ऊपरकी मंजिल पर चढ़ गया। इच्छा थी कि गुपचुप रहकर ही सब कुछ देख सुन लूँगा ; परन्तु ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि ज़ीनेके सामनेके कमरेमें ही मन्मथ जीनेकी ओर मुँह किये बैठा था और कमरेकी दूसरी ओर पीठ किये हुए एक अवगुण्ठिता नारी बैठी हुई मृदु स्वरसे बात कर रही थी । जब देखा कि मन्मथने मुझे देख लिया है, तब जल्दीसे कमरेमें प्रवेश करते ही मैंने कहा-भाई, मेरी घड़ी कमरेमें ही रह गई है, उसे लेने आया हूँ । मन्मथ इस तरह घबरा गया कि मानो वह अभी जमीन चूमने लगेगा। मैं कौतुक और पानन्दसे बहुत ही व्यग्र हो उठा ओर बोला-भाई, क्या तुम्हें कोई तकलीफ है ? परन्तु वह इस प्रश्नका कुछ भी उत्तर न दे सका । तब मैंने उस कठपुतलीके समान निश्चल बूंघटवाली नारीकी ओर घूमकर पूछाआप मन्मथकी कौन होती हैं ? उसने यद्यपि कोई उत्तर नहीं दिया, तथापि देखा कि वह मन्मथकी कोई नहीं है, मेरी स्त्री है ! इसके बाद क्या हया सो कहनेकी जरूरत नहीं । ___ लीजिए पाठक ! मेरे जासूसी व्यवसायका 'श्रीगणेश' इसी गहरी सफलताके साथ होता है।
कुछ समय बाद मैंने (लेखकने ) डिटेक्टिव इन्स्पेक्टर बाबू महिमचन्द्रसे कहा-हो सकता है कि मन्मथके साथ तुम्हारी स्वीका सम्बन्ध समाज-विरुद्ध न हो। __ महिमचन्द्र ने कहा-न होनेकी सम्भावना ही अधिक है । क्योंकि मेरी स्त्रीके सन्दूकसे मन्मथकी एक चिट्ठी बरामद हुई है। यह कहकर उसमे वह चिट्ठी मेरे हाथमें रख दो । वह इस प्रकार थी