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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
गया है, तो भी वह घर नहीं गया । मैंने सोचा कि इसका कोई संगत कारण अवश्य है । परन्तु यदि वह न्यायसंगत होता, तो यह निश्चय है कि अब तक बातचीतमें खुल जाता । परन्तु वह बात नहीं हुई, इस कारण मन्मथका चालचलन और इतिहास मेरे निकट बहुत ही औत्सुक्यजनक बन गया। जिस असामाजिक मनुष्यसम्प्रदायने अपने आपको पाताल तलमें सर्वथा छिपाकर इस बृहत् मनुष्यसमाजको सर्वदा ही नीचेकी ओर दोलायमान कर रक्खा है, यह बालक उसी विश्वव्यापी बहुत पुरानी बड़ी भारी जातिका एक अंग है । यह किसी विद्यालयका एक मामूली विद्यार्थी नहीं है, बल्कि जगद्वक्षविहारिणी सर्वनाशिनीका एक प्रलय सहचर है जो आधुनिक समयके चश्माधारी निरीह भारतीय छात्रके वेशमें कालेजमें पढ़ रहा है।
आखिर मुझे एक सशरीर रमणीकी अवतारणा करनी पड़ी। पुलिससे वेतन पानेवाली हरिमति इस विषयमें मेरी सहायिका हुई । मैंने मन्मथसे कहा-मैं इसी हरमतिका हतभागा प्रणयाकांक्षी हूँ । इसको लक्ष्य करके मैं कुछ दिनों तक गोलदिग्धीमें मन्मथका पार्श्वचर बन कर "एरे मतिमंद चंद आवत न लाज तोहि, हैके द्विजराज काज करते कसाईके" आदि कविताएँ बार बार पढ़ता रहा, और हरिमतिने भी कुछ हृदयके साथ तथा कुछ लीलापूर्वक प्रकट किया कि मैं अपना चित्त मन्मथको सौंप चुकी हूँ। परन्तु इन सब बातोंसे कोई आशानुरूप फल नहीं हुआ । मन्मथ सुदूर निर्लिप्त अविचलित कुतूहलके साथ सब कुछ पर्यवेक्षण करता रहा।
इसी समय एक दिन दो पहरको मुझे मन्मथकी मेजपर एक चिट्ठीके कितने ही टुकड़े पड़े दिखाई दिये । मैंने उन सबको एक एक करके उठा लिया और जोड़ जाड़कर उसमेंका यह एक अपूर्ण वाक्य पढ़ पाया"आज सन्ध्याको सात बजे छिपकर मैं तुम्हारे डेरेपर-" बहुत