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रवीन्द्र- कथाकुञ्ज
इसके बाद ही आहारकी चिन्ताने श्रा घेरा । दरिद्र कुर्क अपने हाथसे दाल भात पकाकर खा लिया करता था | आज इस श्रानन्दके अवसरपर वह क्या करे और क्या खिलावे ! मृण्मयी बोली - श्राज हम सब लोग मिलकर रसोई बनावेंगे । श्रपूर्वको भी यह प्रस्ताव अच्छा जान पड़ा और उन्होंने इस कामके लिए बहुत अधिक उत्साह प्रकट किया ।
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उस घर के भीतर स्थानाभाव था, लोकाभाव था और अन्नाभाव भी था; परन्तु जिस तरह फुहारा छोटेसे छिद्रमेंसे चौगुने बेगके साथ छूटता है, उसी तरह दरिद्रताके संकीर्ण मुखमेंसे श्रानन्दकी धारा पूरी तेजीके साथ उच्छ्वसित होने लगी ।
इसी तरह तीन दिन बीत गये । दोनों वक्त नियमित रूप से स्टीमर श्रता और तब सैकड़ों यात्रियोंके कोलाहल से वह स्थान भर जाता; परन्तु सन्ध्याको नदीका किनारा बिल्कुल निर्जन हो जाता और उस समय वहाँ अबाध स्वाधीनताके दर्शन होते । तब तीनों आदमी मिलकर रसोईकी तरह तरहकी तैयारियाँ करते, भूलें करते और कुछ करते हुए कुछ कर बैठते । इसके बाद मृण्मयी अपने बलय-कंकृत स्नेहसिक्त हाथों से परोसती, ससुर दामाद एक साथ आहार करते और दोनों मिलकर मृण्मयीकी सैकड़ों त्रुटियों की आलोचना करते हुए प्रसन्न होते । इससे मृण्मयी खीती, अभिमान करती और इस प्रकार आनन्द - कलहका वह दृश्य समाप्त हो जाता । आखिर अपूर्व ने कहा- - अब यहाँ और अधिक ठहरना ठीक नहीं । मृण्मयीने करुणस्वरसे और कुछ दिन रहनेकी प्रार्थना की । पूर्वने कहा- नहीं, कोई काम नहीं है ।
बिदाई के दिन ईशानचन्द्रने कन्याको छाती से लगाकर और उसके मस्तक पर हाथ रखकर अश्रु-गद्गद कण्ठसे कहा- बेटी, तुम ससुरालको