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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
रहकर स्वेच्छापूर्वक दिया हुआ उपहार पसन्द करते हैं। चाहे कुछ हो, अपने हाथसे उठाकर नहीं लेना चाहते । जो संयोग अत्यधिक हृदयरसकी लालसासे होता है, उसके सिवाय और कोई चीज़ उन्हें नहीं रुचती।
मृण्मयी और अधिक नहीं हँसी। अपूर्व उसे प्रत्यूषके अल्प प्रकाशमें निर्जनपथसे उसकी माँके घर पहुँचा आये और अपनी माँसे बोले
-मैंने सोचकर देखा कि यदि मैं उसे साथ ले जाऊँगा, तो मेरे पढ़ने लिखनेमें हर्ज होगा और वहाँ उसके पास रहनेवाला भी कोई नहीं है। तुम तो उसे इस घरमें रखना ही नहीं चाहतीं, इस कारण मैं उसे उसकी माँके यहाँ पहुँचा आया हूँ।
सुगंभीर अभिमानके बीच माता और पुत्रका विच्छेद हो गया।
माताके घर आकर मृण्मयीने देखा कि किसी काममें उसका मन नहीं लगता। इस घरका मानो सभी कुछ आदिसे अन्त तक बदल गया है। वह यह निश्चित न कर सकी कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किसके साथ मिलूँ जुलूँ । ____ उसे ऐसा मालूम होने लगा कि सारे घर और गाँवमें कोई आदमी ही नहीं है । मानो दोपहरके समय सूर्यको ग्रहण लग गया है। वह किसी तरह न समझ सकी कि आज कलकत्ते जानेके लिए जो इतनी इच्छा हो रही है, वह कल रातको कहाँ चली गई थी ! कल वह नहीं जानती थी कि जीवनके जिस अंशका परिहार करनेके लिए मन इतना छटपटा रहा था, अाज ही उसका सारा स्वाद क्योंकर इतना बदल गया । वृक्षके पके हुए पत्तोंके समान आज उसने उसी अतीत जीवनको इच्छापूर्वक अनायास तोड़ कर दूर फक दिया।