Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 72
________________ ६६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज नहीं है । साधारणतः ऐसा परिवर्तन सर्वत्र नहीं देखा जाता । बड़े भारी परिवर्तनके लिए बल भी बहुत बड़ा चाहिए । सासने निश्चय किया था कि मृण्मयीके सारे दोष एक एक करके सुधारूँगी ; परन्तु उसके सुधारने के पहले ही न जाने किस संशोधनकर्ताने न जाने किस संक्षिप्त उपायका अवलम्बन करके मृण्मयीको मानो एक नया ही जन्म ग्रहण करा दिया। ___ इस समय सासको मृण्मयीने समझा और मृण्मयीने सासको पहचाना । जिस तरह वृक्षके साथ उसकी सारी शाखा-प्रशाखाओं का मेल रहता है, उसी प्रकार सारी गृहस्थी आपसमें अखण्डरूपसे सम्मिलित हो गई। ___एक गंभीर स्निग्ध और विशाल रमणी-प्रकृति मृण्मयीके सारे शरीर और सारे अंतःकरणकी रग रगमें भर उठी, और इससे मानो उसे एक तरहकी वेदना होने लगी। प्रथम आषाढ़के श्याम सजल मेघोंके समान उसके हृदयमें एक अश्रुजलपूर्ण विस्तीर्ण अभिमानका संचार होने लगा । उस अभिमानने नेत्रोंकी छायामय सुदीर्घ पलकोंके ऊपर एक और गहरी छाया डाल दी । वह मन ही मन कहने लगी कि मैं तो मूर्ख थी, इस कारण मैं अपने आपको नहीं जान सकी; परन्तु तुमने मुझे क्यों नहीं पहचाना ? तुमने मुझे दण्ड क्यों न दिया ? तुमने मुझे अपने इच्छानुसार क्यों नहीं चलाया ? जब यह राक्षसी तुम्हारे साथ कलकत्ते जानेको राजी नहीं हुई, तब तुम इसे जबर्दस्ती पकड़कर क्यों नहीं ले गये ? तुमने मेरी बात क्यों सुनी, मेरा अनुरोध क्यों माना, मेरे वेकहेपनको क्यों सहन किया ? इसके बाद, वह दृश्य उसकी आँखोंके सामने घूम गया जब अपूर्वने तालाबके किनारे निर्जन मार्गमें उसे गिरफ्तार कर लिया था और बिना कुछ कहे सुने केवल उसके मुँहकी ओर टकटकी लगा दी थी। एका

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