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राजतिलक
नवेन्दुने सूखी हँसी हँसकर किसी तरह एक देशकालपात्रोचित उत्तर निकालकर बाहर किया। कहा-तुम्हारे इलाकेमें तबीयत खराब कैसे हो सकती है ! तुम तो मेरी धन्वन्तरिनी हो!
किन्तु तत्काल ही उनकी वह हँसी विलीन हो गई। वे सोचने लगे --एक तो मैंने कांग्रेसके लिए चन्दा दियां, अखबार में कड़ी चिट्ठी प्रकाशित कराई और उसके ऊपर आज मजिस्ट्रेट साहबके खुद आनेपर
भी मैं उनसे मुलाकात न कर सका। मालूम नहीं, वे क्या सोचते होंगे!
हाय पिता ! हाय पूर्णेन्दुशेखर ! यह सब भाग्यकी ही विचित्रता है कि इस झगड़ेमें पड़कर मैं जो नहीं था, वही बना जा रहा हूँ। ___ दूसरे दिन सज-धजकर, घड़ी-चैन लटकाकर और मस्तकपर एक बड़ा-सा साफा बाँधकर नवेन्दुबाबू घरसे बाहर हुए । लावण्यने पूछाकहाँ जाते हैं ? नवेन्दुने कहा-एक जरूरी कामसे जा रहा हूँ।
लावण्यने कुछ नहीं कहा।
साहबके द्वारके निकट कार्ड निकालते ही अर्दलीने कहा-इस समय मुलाकात नहीं हो सकती।
नवेन्दुने पाकेटमेंसे दो रुपये निकाले । अर्दलीने संक्षिप्त सलाम करके कहा-हम लोग पाँच आदमी हैं। नवेन्दुने तत्काल ही दस रुपयेका नोट दे दिया। ___ साहबके यहाँसे तलबी हुई ! साहब उस समय स्लीपर और मानिङ्ग गौन पहने हुए लिख-पढ़ रहे थे। नवेन्दुने जाकर सलाम किया । मजिस्ट्रेटने उँगलीसे बैठनेका इशारा करके कागजकी अोरसे दृष्टि न हटाकर कहा-बाबू , क्या कहना चाहते हो ?
नवेन्दुने घड़ीकी चैन हिलाते हिलाते विनीत और कम्पित स्वरसे