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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
साथ दिया गया । इसके बाद ही सारे श्राकाशको व्याप्त करती हुई फिर वही चंचल हास्यध्वनि सुनाई पड़ी । ऐसा जान पड़ा कि मानो नृत्यमयी प्रकृति देवीके बिछुयोंकी झन्कार गूंज रही है । चिन्ता-निमग्न पूर्वकृष्ण बहुत धीरे धीरे पैर बढ़ाते हुए वहाँसे चल दिये और अपने घर पहुँचे ।
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उस दिन पूर्व बाबू अपनी मातासे बिलकुल नहीं मिले । तरह तरहके बहाने बनाकर उन्होंने वह सारा दिन यों ही व्यतीत कर दिया । भोजन के समय मिलना पड़ता, सो उस दिन कहीं निमंत्रण था । समझ में नहीं आता कि पूर्व के समान पढ़ा लिखा और गंभीर आदमी एक मामूली बिना पढ़ी लिखी लड़की से अपना लुप्त गौरव उद्धार करने और उसे अपनी महत्ताका परिचय देनेके लिए इतना safar उत्कण्ठित क्यों हो रहा है । यदि एक देहाती लड़कीने उसे मामूली आदमी समझ ही लिया तो क्या हुआ और यदि उसने थोड़ी देर के लिए उसकी परवा न करके निर्बोध राखाल के साथ खेलने के लिए धूम मचा दी, तो इसमें भी उसका क्या बिगड़ गया ! यदि वह 'विश्वदीप' में समालोचना लिखा करता है तो लिखा करे, और उसके ट्रमेंसे एसेन्स, जूते, कपूर, चिट्टी लिखनेके रंगीन कागज और हार्मोनियमशिक्षा आदि चीजें रात्रि के गर्भ मेंसे भावी उषाकी तरह बाहर निकालने की प्रतीक्षा किया करती हैं, तो किया करें । मृण्मयीके सामने इन बातोंका सुबूत पेश करनेकी तो कोई श्रावश्यकता प्रतीत नहीं होती । परन्तु एक तो मनको समझाना कठिन काम है, और
दूसरे श्रीयुत अपूर्वं कृष्णराय बी० ए० इसके लिए किसी तरह तैयार नहीं हैं कि वे एक देहाती लड़की के सामने हार मानकर चुप बैठ
जाये !