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समाप्ति
पार करके एकाएक मानस-तटपर श्रा विराजते हैं। परन्तु ऐसा केवल उनके सौन्दर्य के कारण नहीं बल्कि एक और गुण के कारण होता है ;
और हमारी समझमें वह गुण शायद सुस्पष्टता है। अधिकांश मुखोंमें मनुष्य-प्रकृति अच्छी तरह स्पष्टताके साथ प्रकाशित नहीं हो पाती; परन्तु जिस मुखमें वह अन्तर्गुहानिवासी रहस्यमय मनुष्य बिना रुकावटके बाहरसे दिखाई पड़ जाता है वह हजारोंके बीचमें भी आँखोंपर चढ़ जाता है और बातकी बात में मनपर मुद्रित हो जाता है । इस बालिकाके मुखपर और नेत्रोंपर भी एक दुरन्त और अबाध्य नारी-प्रकृति सर्वदा उन्मुक्त और वेगवान् अरण्य-मृगके समान दिखलाई देती है- खेलती है; इसीलिए इसका जानदार चेहरा यदि एक बार देख लिया जाय तो फिर भुलाये नहीं भूलता।
पाठकोंसे यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि मृण्मयीकी कौतुकमयी हँसी चाहे कितनी ही मीठी क्यों न हो; परन्तु अभागे अपूर्वको वह उतनी अच्छी नहीं लगी । वे अपना बेग मल्लाहके हाथमें देकर बड़ी तेजीके साथ घरकी ओर चल दिये । उस समय उनका मुँह लाल हो रहा था । _तैयारी बहुत ही बढ़िया हुई थी – नदीका किनारा, वृक्षोंकी छाया, सबेरेकी धूप और बीस वर्षकी उम्र । यद्यपि वह ईटोंका ढेर उतना उल्लेखयोग्य नहीं था ; परन्तु जो व्यक्ति उसपर बैठी थी, उसने उस सूखे कठिन आसनको एक मनौहारिणी सुन्दरतासे अवश्य मढ़ दिया। इतने पर भी यह कैसे दुःखकी बात है और भाग्यदेवताकी यह कैसी निष्ठुरता है कि इस सुन्दर दृश्यके भीतर पैर रखते ही सारा कवित्व एक प्रहसनमें परिणत हो गया!
आखिर ईंटोंके उस ढेरकी चोटीसे निकली हुई हास्य-गंगाका कलनिनाद सुनते-सुनते अपूर्व बाबू अपने घर पहुँच गये।