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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
पुत्रके एकाएक आजानेसे माता पुलकित हो गई और अड़ोस पड़ोसमें भी एक प्रकारकी हलचल-सी मच गई।
भोजनोपरान्त माताने अपूर्व के विवाहकी बात उठाई । अपूर्व बाबू अबकी बार इसके लिए तैयार होकर ही आये थे। उन्हें नये जमानेकी हवा लगी थी, इस कारण वे प्रतिज्ञा कर बैठे थे कि मैं बी० ए० हुए बिना विवाह न करूँगा और इसीलिए अबतक उनका विवाह नहीं हुआ था। उनकी माता भी इसी कारण अबतक चुप थी। उन्होंने सोचा कि अब टालमटोलसे काम नहीं चल सकता और कहा-विवाह तो तब होगा, जब पहले कोई कन्या ठीक कर ली जायगी । माँने उत्तर दियाकन्या देख ली गई है और बातचीत भी तै हो गई है । तुझे इसकी चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं । परन्तु अपूर्वने इस चिन्ताको अपने सिरपर ही लेना उचित समझा और कह दिया-कन्याको जब तक मैं स्वयं न देख लूँगा ; तब तक विवाह नहीं होगा । माँने देखा कि लड़का बड़ा ही निर्लज्ज हो गया है और अब घोर कलियुग आ गया है ; परन्तु उसे अन्तमें पुत्रके ही इच्छानुसार चलना पड़ा।
उस रातको अपूर्व बिछौनेपर लेटे हुए थे। दीपक बुझ गया था । उनकी आँखोंमें नींद नहीं थीं। चारों ओर सन्नाटा था। उनके कानों में वही उच्चकण्ठसे निकली हुई मधुर हँसी प्रतिध्वनित होने लगी और उनका मन बार बार यह कह कर कष्ट देने लगा कि सबेरेकी वह पैर फिसल जानेकी गलती किसी न किसी तरह सुधार लेनी चाहिए। उस लड़कीको यह नहीं मालूम कि मैं बी० ए० तक पढ़ा हूँ और कलकत्तेमें बहुत समय तक रहकर आया हूँ, अतएव यदि दैवात् पैर फिसल जानेसे गिर भी पड़ा, तो केवल इतने से ही उपहास्य या उपेक्षणीय कैसे हो गया ! क्या मैं कोई देहाती गँवार हूँ ?
दूसरे दिन अपूर्व बाबू कन्या-निरीक्षण के लिए जाने को तैयार हो