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रवीन्द्र - कथाकुञ्ज
इसके बाद कुछ दिनों तक वाद- विसंवाद, वाद-प्रतिवाद से पत्रों के कालमके कालम रँगे गये और नवेन्दुके चन्देकी तथा कांग्रेस में योग देनेकी चर्चा दशों दिशाओं में व्याप्त हो गई ।
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इस समय नवेन्दु बाबूने मानो अपना चोला बदल लिया और वे अपनी सालियों के बीच अत्यन्त देशहितैषीके रूपमें दर्शन देने लगे । लावण्यने मन ही मन हँसकर कहा - किन्तु, अभी तुम्हारी श्रमि परीक्षा तो बाकी ही है !
एक दिन सबेरे नवेन्दु स्नान करने के पहले तेल मल रहे थे । छातीके बाद पीठके दुर्गम स्थानों तक तेल पहुँचानेकी कोशिश में लगे थे कि इतने में नौकरने आकर उनके हाथमें एक विजिटिंग कार्ड लाकर दिया जिसमें स्वयं मजिस्ट्रेट साहबका नाम था । लावण्य आड़ में खड़ी हुई सहास्य नेत्रोंसे यह कुतूहलपूर्ण घटना देख रही थी ।
तैललित अवस्था में मजिस्ट्रेट के साथ कैसे मुलाकात की जाय ? नवेदुबाबू इस तरह छटपटाने लगे जिस तरह तले जाने के पहले मसाले से भरी मछली छटपटाती है। जल्दी जल्दी बातकी बातमें स्नान करके और किसी तरह कपड़े पहनकर वे दौड़ते हुए बाहरके बैठकखाने में पहुँचे । बैराने कहा – साहब बहुत समय तक बैठे बैठे चले गये । इस श्राद्यन्त मिथ्याचरणके पापमें कितना अंश बैराका था और कितना लावण्यका, यह नैतिक गणित शास्त्रकी एक सूक्ष्म समस्या है ।
छिपकलीकी कटी हुई पूँछ जिस तरह अन्धभावसे छटपटाती रहती है, उसी तरह नवेन्दुका क्षुब्ध हृदय भीतर ही भीतर छटपटाने लगा । सारे दिन खाते पीते सोते बैठते उन्हें बेचैनीने चैन नहीं लेने दिया ।
लावण्य भीतरी हँसीके सारे ग्राभासको मुँहपरसे बिलकुल दूर करके बड़ी उद्विग्नता से ठहर-ठहर कर पूछने लगी- भला आज तुम्हें क्या हो गया है ! तबीयत तो खराब नहीं है ?