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पड़ोसिन
अपने हृदयका सारा उत्ताप देकर विकसित करने लगा। उस अनाड़ीकी रचनाको मैं ऐसी खूबीके साथ संशोधित करने लगा कि उसका प्रायः पन्द्रह पाना भाग मेरी रचना बन जाने लगा।
नवीनने विस्मित होकर कहा-ठीक यही बात तो मैं भी कहना चाहता हूँ, परन्तु कह नहीं सकता। भला तुम्हें ये सब भाव कहाँसे सूझ जाते हैं !
मैंने कविके समान उत्तर दिया-कल्पनासे । कारण, सत्य नीरव है, कल्पना ही वाचाल है । सत्य घटना भावों के झरनेको पत्थरके समान दबा रखती है, परन्तु कल्पना उसका मार्ग खोल देती है ।
नवीनने अपना मुँह गंभीर बनाकर और कुछ सोचकर कहा-यही तो जान पड़ता है। ठीक है। - इसके बाद और भी कुछ समय तक सोचकर कहा-ठीक ! ठीक ! ___ मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मेरे प्यार में एक प्रकारका कातर संकोच था, इसीलिए मैं अब तक अपनी तरफसे कुछ भी नहीं लिख सका था। परन्तु जब नवीनको परदेके भीतर बीच में बैठा लिया, तब मेरी लेखनीने भी मुख खोल दिया । वे रचनाएँ मानो रस से लबालब भरकर उत्तापसे उफनने लगीं। ___ नवीनने कहा-ये तुम्हारी रचनाएँ हैं। अतएव इन्हें मैं तुम्हारे ही नामसे प्रकाशित कराऊँगा।
मैंने कहा-खूब ! लिखी हुई तो तुम्हारी ही हैं न ? मैंने तो थोड़ा-सा रद्दोबदल ही किया है।
धीरे धीरे नवीनका भी यही विश्वास हो गया।
मैं इस बातसे इंकार नहीं कर सकता कि जिस तरह ज्योतिषी नक्षत्रों के उदयकी अपेक्षा करता हुआ आकाशकी ओर देखा करता है, मैं