Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 37
________________ राजतिलक बहादुर हो जानेसे तेरे पतिको कुछ दुम तो निकल ही न आवेगी। फिर लजित होनेका कारण ? अरुणलेखा बार बार कहने लगी-नहीं बहन, और चाहे जो हो, मैं रायबहादुरनी तो न बनूंगी। बात यह थी कि अरुणलेखाके परिचित भूतनाथ बाबू रायबहादुर थे और यही कारण था जो वह रायबहादुरनी बनना नापसन्द करती थी ! ___ लावण्यने बहुत कुछ ढाढस बँधाकर कहा--अच्छा, इस विषयमें तू जरा भी चिन्ता न कर, हम सब ठीक कर लेंगी। लावण्यके पति नीलरतन बक्सरमें काम करते थे। शरदऋतु के अन्तमें नवेन्दुबाबूको लावण्यने अपने यहाँ निमंत्रित किया। नवेन्दुबाबू बड़ी खुशीके साथ तत्काल बक्सर चल दिये । यद्यपि रेलपर पैर रखते समय उनकी बाई अाँख नहीं फड़की, परन्तु इससे केवल यही सिद्ध हुआ कि आसन्न विपत्ति के समय बाई आँखका फड़कना केवल एक बिना सिर-पैरका बहम है। लावण्यलेखाके शरीरसे नवीतागमसम्भूत स्वास्थ्य और सौन्दर्यकी लालिमा फूटी पड़ती थी। जिस तरह शरत्-कालमें काँसके खेत फूलकर लहराते हुए शोभा विस्तार करते हैं, उसी तरह लावण्यलेखाकी सुन्दरता हँसीकी हिलोरोंसे झलमल झलमल करती थी। नवेन्दुबाबूकी मुन्ध दृष्टिके ऊपर मानो एक पूर्णपुरिपता मालतीलता नये प्रभातकी शीतल ओसकी बूंदें बरसाने लगी। मनकी प्रसन्नता और बक्सरके जल-वायुसे नवेन्दुका अजीर्ण रोग दूर हो गया । स्वास्थ्यके नशेसे, सौन्दर्यके मोहसे और सालीकी सेवा शुश्रूषासे वे मानो धरती छोड़कर आकाशसे बातें करने लगे। उनके बगीचेके सामने से होकर भरी-पूरी गंगा मानो उन्हींके मनके दुरन्त पाग--

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