________________
जय और पराजय
कुण्डमें डालने लगे । एकाएक उन्हें एक दिल्लगी सूझी। उन्होंने हँसतेहँसते कहा-जिस तरह बड़े बड़े राजा अश्वमेध किया करते हैं उसी तरह आज मैं यह काव्य-मेध-यज्ञ कर रहा हूँ। किन्तु तत्काल ही सोचा कि यह उपमा ठीक नहीं बैठी। अश्वमेध तो उस समय होता है, जब अश्वमेधका अश्व सर्वत्र विजय प्राप्त करके आता है । परन्तु मैं तो उस समय यह काव्य मेध करने बैठा हूँ, जिस समय मेरा कवित्व पराजित हुआ है। अच्छा होता, यदि यह यज्ञ बहुत दिन पहले किया जाता। ___ धीरे धीरे उन्होंने अपने सभी ग्रन्थ अग्निदेवको समर्पित कर दिये । अग्नि धाय धाय करके जलने लगी और वे विवेकके साथ अपने दोनों खाली हाथ आकाशकी ओर करके कहने लगे-हे सुन्दरि अग्नि-शिखा ! यह सब तुम्हींको दिया, तुम्हींको दिया, तुम्हींको दिया। इतने दिन तुम्हींको समस्त आहुतियाँ देता आ रहा था। आज एक साथ शेष कर दिया । बहुत दिनोंसे तुम मेरे हृदय में जल रही थीं। हे मोहिनी वहिरूपिणि ! यदि सोना होता तो चमक उठता। किन्तु देवि ! मैं एक तुच्छ तृण हूँ, इसीलिए आज भस्म हो गया। ____रात्रि बहुत बीत गई । शेखरने अपने घरकी सारी खिड़कियाँ खोल दीं। वे जिन जिन फूलोंको पसन्द करते थे, सन्ध्याको बगीचेसे संग्रह करके ले आये थे । वे सब श्वेत थे-जूही, बेला और गन्धराज । उन्होंने उन सबको मुट्ठी मुट्ठी लेकर अपने निर्मल बिछौनेपर फैला लिया। घरके चारों ओर दीपक जला दिये। ___ इसके बाद एक वनस्पतिका विषरस मधुके साथ मिलाकर निश्चिन्तताके साथ पी लिया और धीरे धीरे अपनी शय्या पर जाकर शयन किया। शरीर अवश हो गया और नेत्र हुँदने लगे।
नूपुर बजे । दक्षिण पवनके साथ केश-गुच्छोंकी सुगन्धिने भी घरमें प्रवेश किया।