Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
अवस्था सामने आती है। अज्ञानी मोही जीव भ्रमवश ही मोह के कारण अपने साथ बन्धे हुए धन, सम्पत्ति, पुत्र कलत्रादि को अपना समझता है तथा यह जीव मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोध आदि विभावों के संयोग के कारण अपने को रागी, द्वेषी, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी समझता है, पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है। ये सब जीव की विभाव पर्याय हैं, पर निमित्त से उत्पन्न हुयीं हैं, अतः इनके साथ जीव का कोई सम्बन्ध नहीं । आत्मिक भेदविज्ञान, जिसके अनुभव द्वारा शरीर और आत्मा की भिन्नता अनुभूत की जा सकती है, कल्याण का कारण है। इस भेदविज्ञान की दृष्टि प्राप्त हो जाने पर आत्मा का साक्षात्कार इस शरीर में ही हो जाता है तथा भौतिक पदार्थों से आस्था हट जाती है। अतएव रत्नाकर शतक का अध्यात्म निराशावाद का पोषक नहीं, बल्कि कृत्रिम आशा और निराशाओं को दूर कर एक अद्भुत ज्योति प्रदान करनेवाला है।
रत्नाकराधीश्वर शतक की रचना शैली और भाषा
यह शतक मत्तेभविक्रीड़ित और शार्दूलविक्रीड़ित पद्यों में रचा गया है। इसकी रचना-शैली प्रसाद और माधुर्यगुण से श्रोत-प्रोत है। प्रत्येक पद्य में अंगूर के रस के समान मिठास वर्तमान है। शान्तरस का सुन्दर परिपाक हुआ है। कवि ने
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