Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
दुःख दायक है, चारों गतियों में भ्रमण कराने वाला है । शुभानव ही बन्ध का कारण है, अतः श्रास्रव के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना आस्रव भावना है।
संवर भावना--जीव ज्ञान, ध्यान में प्रवृत्ति होने से नवीन कर्मों के बन्धन में नहीं पड़ता है, इस प्रकार का विचार करना संवर भावना है। राग, द्वेष रूप परिणामों से आस्रव होता हैं, जब जीव अपने स्वरूप को समझ कर राग-द्वेष से हट जाता है और स्वरूप चिंतन में लीन हो जाता है, संवर भावना होती है।
निर्जरा भावना-ज्ञान सहित क्रिया करना निर्जरा का कारण है ऐसा चिन्तन करना निर्जरा भावना है।
लोक भावना-लोक के स्वरूप की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का विचार करना लोक भावना है । इस लोक में सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में स्थित रहते हैं। इनमें आत्मद्रव्य पृथक् है, इसका स्वरूप यथार्थ जानकर अन्य पदार्थों से ममता छोड़ना लोक भावना है।
बोधिदुर्लभ भावना---इस भ्रमणशील संसार में सम्यग्ज्ञान या सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होना दुर्लभ है। यद्यपि रत्नत्रय आत्मा की वस्तु है, परन्तु अपने स्वरूप को न जानने के कारण यह दुर्लभ हो रहा है, ऐसा विचारना बोधिदुर्लभ भावना है।
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