Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 145
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक विध्वंसी शरीर के साथ जीव सम्बन्ध का संकेत करते हुए निश्चय नय की दृष्टि द्वारा अपने स्वरूप-चिन्तन का प्रतिपादन किया है। व्यवहार नय की अपेक्षा से मोह आत्मा का विकृत स्वरूप है, निश्चय की अपेक्षा यह आत्मा का स्वरूप नहीं। अतः व्यवहारी जीव मोह के प्रबल उदय से शरीर को अपना समझ लेता है; किन्तु कुछ समय पश्चात् उसके इस समझने की निम्सारता उसे मालूम हो जाती है। जैसे बालू की दीवाल बन नहीं सकती या बनाते ही तुरत गिर जाती है, अथवा सुन्दर रंग बिरंगे मेघ पटल क्षण भर के लिये अपना मन मोहक रूप दिखलाते हैं, पर तुरन्त विलीन हो जाते हैं, इसी प्रकार यह शरीर भी शीघ्र नष्ट होनेवाला है, इससे मोह कर पर भावों को अपना समझना, बड़ी अज्ञता है । निश्चय नय द्वारा व्यवहार को त्या ज्य समझकर जो आत्मा के स्वरूप का मनन करता है तथा इतर द्रव्यों और पदार्थों के वरूप को समझकर उनसे इसे अलिप्त मानता है, इसे अपने ज्ञान दर्शन, सुख, वीर्य, आदि गुणों से युक्त अखण्ड समझता है, अनुभव करता है वह इस शरीर में रहते हुए भी रागादि परिणामों को छोड़ देता है, अपने प्रात्मा में स्थिर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है क्रोध, मान, माया लोभ, आदि विकार व्यवहार नय के विषय हैं, अतः इनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं। मोह इन सब विकारों में For Private And Personal Use Only

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