Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
१४६
इच्छा की पूर्ति नहीं हुई। भगवन् ! ऐसे दुःखियों को देख कर भी तुम दया नहीं करते, कृपा करो भगवन् ! ॥ २३ ॥
विवेचन-भक्ति हृदय का रागात्मक भाव है। किसी महा पुरुष या शुद्धात्मा के गुणों में अनुराग करना भक्ति है। किन्तु शुभ भावात्मक भक्ति को ही धर्म समझ लेना अनुचित है। वास्तव में बात यह है कि शरीर एक स्वतन्त्र द्रव्य है, यह अनन्त अचेतन पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है। इसके प्रत्येक परमाणु के प्रत्येक गुण की प्रति समय में होनेवाली पर्याय इसमें स्वतन्त्र रूप से होती रहती है। श्रात्म-द्रव्य अरूपी, ज्ञायक स्वभावशरीर से भिन्न है, इसमें भी इसके प्रत्येक गुण की पर्याय प्रति समय में स्वतन्त्र रूप से होती रहती है । ये दोनों द्रव्य स्वतन्त्र हैं, दोनों के कार्य और गुण भी भिन्न-भिन्न हैं। एक द्रव्य की क्रिया के फल का दूसरे द्रव्य की क्रिया के फल से कोई सम्बन्ध नहीं । जो व्यक्ति बिना भावों के भक्ति करते हैं-शरीर से नमस्कार, मुँह से स्तोत्र-पाठ तथा मन जिनका किसी दूसरे स्थान में रहता है वे शरीर की क्रियाओं के कर्ता अपने को मानने के कारण अशुभ का बन्ध करते हैं। यद्यपि व्यवहार की दृष्टि से यत्किञ्चित् शुभ का बन्ध उनके होता ही है, फिरभी वास्तविक धर्म के निकट वे नहीं पहुँच पाते हैं।
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