Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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विस्तृत विवेचन सहित
भाव सहित भक्ति करनेवाले भी पर द्रव्य की क्रिया का कर्त्ता अपने को मानने के कारण यथार्थ धर्म से कुछ दूर रह जाते हैं। जब जीव अपने निज आत्म स्वभाव को पहचान लेता है कि "मैं ज्ञाता द्रष्टा हूँ, पर द्रव्य से मेरा कुछ भी हित, अहित नहीं हो सकता है, मेरा वास्तविक रूप सिद्ध अवस्था में प्रकट होता है, वही मैं हूँ , आत्मा अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होता हैं । मैं त्रिकाल में समस्त द्रव्य को जानने, देखने वाला हूँ, मैं किसी अन्य द्रव्य का कर्ता, धर्ती नहीं हूँ। जो विकल्प इस समय श्रात्मा में उत्पन्न हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इस प्रकार का श्रद्धान सम्यग्दृष्टि जीव को होता है। सम्यग्दृष्टि अपने भीतर वीतरागता उत्पन्न करने के लिये पंचपरमेष्ठी के गुणों का चिन्तन करता है, उनके गुणों में अनुरक्त होता है।
जब तक संसार और शरीर से पूर्ण विरक्ति नहीं होती है, श्रात्मा में अपनी निर्बलता के कारण विकल्प उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन विकल्पों को दूर करने के लिये पूर्ण शुद्ध अव. स्था को प्राप अरिहन्त और सिद्ध अथवा उनकी मूर्ति के सामने भक्ति से गदगद हो जाता है, वह वीतरागता का चिन्तन करता हुआ वीतरागी बनता है । वीतरागी पथके पथिक आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु परमेष्ठियों ये गुणों से अनुरंजित होता है, जिससे
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