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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित भाव सहित भक्ति करनेवाले भी पर द्रव्य की क्रिया का कर्त्ता अपने को मानने के कारण यथार्थ धर्म से कुछ दूर रह जाते हैं। जब जीव अपने निज आत्म स्वभाव को पहचान लेता है कि "मैं ज्ञाता द्रष्टा हूँ, पर द्रव्य से मेरा कुछ भी हित, अहित नहीं हो सकता है, मेरा वास्तविक रूप सिद्ध अवस्था में प्रकट होता है, वही मैं हूँ , आत्मा अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होता हैं । मैं त्रिकाल में समस्त द्रव्य को जानने, देखने वाला हूँ, मैं किसी अन्य द्रव्य का कर्ता, धर्ती नहीं हूँ। जो विकल्प इस समय श्रात्मा में उत्पन्न हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इस प्रकार का श्रद्धान सम्यग्दृष्टि जीव को होता है। सम्यग्दृष्टि अपने भीतर वीतरागता उत्पन्न करने के लिये पंचपरमेष्ठी के गुणों का चिन्तन करता है, उनके गुणों में अनुरक्त होता है। जब तक संसार और शरीर से पूर्ण विरक्ति नहीं होती है, श्रात्मा में अपनी निर्बलता के कारण विकल्प उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन विकल्पों को दूर करने के लिये पूर्ण शुद्ध अव. स्था को प्राप अरिहन्त और सिद्ध अथवा उनकी मूर्ति के सामने भक्ति से गदगद हो जाता है, वह वीतरागता का चिन्तन करता हुआ वीतरागी बनता है । वीतरागी पथके पथिक आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु परमेष्ठियों ये गुणों से अनुरंजित होता है, जिससे For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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