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रत्नाकर शतक
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स्वयं उसे उस पथ की प्राप्ति होती है। यहाँ भक्ति का अर्थ यह नहीं है की अन्य द्रव्य द्वारा अन्य का उपकार किया जाता है, बल्कि अपने मूल द्रव्य की आच्छादित सामर्थ्य को व्यक्त करना है। कल्याण मन्दिर स्तोत्र में कहा है
नूनं न मो हतिमिरावृतलोचनेन,
पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोद्यत्पबन्धगतयः कथमन्यथैते ॥ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भत्त्या ॥ जातोऽस्मि तेन जनबान्धवदुःखपात्रं, ___यस्मानियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥
अर्थात्--हे भगवान् ! जड़ इन्द्रिय रूपी नेत्रों से तो आपके अनेक बार दर्शन किये किन्तु मोहान्धकार से रहित ज्ञानरूपी नेत्रों से आपका एक बार भी दर्शन नहीं किया अर्थात् शुद्धामा को
आपके समान कभी नहीं देखा; इसीलिये हे प्रभो ! दुःखदायी मोह-भवों से सताया जा रहा हूँ।
हे भगवन् ! अनेक जन्म-जन्मान्तरों में मैंने आपका दर्शन,
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