Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
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हैं। उनकी भक्ति, स्तुति, अर्चा ही मन को पूत कर देती है, जिससे जीव को पुण्य का प्रास्रव होता है और आगे जाकर या तुरन्त ही सुख को उपलब्धि हो जाती है। इसी प्रकार निन्दा करने से भावनाएँ दूषित हो जाती हैं, विकार जाग्रत हो जाते हैं जिससे पापास्रव होता है अतः निन्दा करने से दुःख की प्राप्ति होती है।
प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता वर्तमान है। मूलतः आत्मा शुद्ध है, इसमें परमात्मा के सभी गुण वर्तमान हैं। जब कोई भी जीव अपने सदाचरण, ज्ञान,
और सद् विश्वास द्वारा अर्जित कर्म संस्कार को नष्ट कर देता है, अपने आत्मा से सारे कानुष्य को यो डानता है तो वह परमात्मा का जाता है। जैन दर्शन में शुद्ध अात्मा का नाम ही परमात्मा है, अात्मा से भिन्न कोई परमात्मा नहीं है । जब तक जीवात्मा कर्मो से बन्धा है, आवरगा उसके ज्ञान, दर्शन, सुख
और वीर्य को ढके है, तब तक वह परमात्मा नहीं बन सकता है । इन समस्त प्रावरणों के दूर होते ही आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। अतः यहाँ एक परमात्मा नहीं हैं, बल्कि अनेक हैं। सभी शुद्धात्माएँ परमात्मा हैं।
परमात्मा बनने पर ही स्वतन्त्रता मिलती है, कर्मबन्धन की
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