Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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विस्तृत विवेचन सहित
तरिसंदोप्पुव बाळकेयी बयलबाळ नच्चि नित्यत्वमं ।
मरेवंतेकेयो निम्म नां मरेदेनो ! रत्नाकराधीश्वरा! ॥२५॥ हे रत्नाकराधीस्वर !
सोया हुआ मनुष्य, स्वप्न में सुख-दुःख की स्थिति में संसार का जैसा अनुभव किये रहता है वैसा ही देखता है । पर आँखें खुलते ही स्वम के दृश्य नष्ट हो जाते हैं, अपना भूला हुआ स्वरूप याद आ जाता है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव पर्याय में निर्विवादतः चक्कर खाता हा यह जीच नाशवान शरीर के ऊपर प्रेम रखकर शाश्वत श्रात्म स्वरूप को भुला दिया जैसा मैंने अपने आपको क्यों भुला दिया है ? ॥२१॥
विवेचन --यह जीव नरक, तिर्यश्च, मनुष्य और देव इन चारों गतियों एवं चौरासी लाख योनियों में निरन्तर अपने स्वरूप को भूले रहने के कारण भ्रमण करता चला आ रहा है। आत्मा शाश्वत है, कार्माण शरीर के कारण इसे अनेक नर, नारकादि पर्यायें धारण करनी पड़ती है। जब तक यह जीव विषयों के आधीन रहता है, जिह्वा स्वादिष्ट भोजन चाहती रहती है, नासिका को सुगन्ध अच्छी लगती है, कान को वारांगनाओं के गायन, वादन प्रिय मालूम होते हैं, आँखों को वनोपवन की सुषुमा अपनी ओर आकृष्ट करती है, त्वचा को सुगन्ध लेपन पिय लगता है तब तक यह जीव अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता है। इन्द्रियों की गति बड़ी तेज है, ये अपनी ओर जीव
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