Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master

View full book text
Previous | Next

Page 182
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रत्नाकर शतक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ३९ है। इससे क्षणिक शान्ति जीव को भले ही प्रतीत हो, पर अन्त में दुःख ही होता है । गर्भवास, नरकवास के भयंकर दुःखों को यह जीव इसी क्षणिक सुख की लालसा के कारण उठाता है | जब तक विषाभिलासा लगी रहती है. श्रात्मसुख का साक्षात्कार नहीं हो सकता । जिन बाह्य पदार्थों में यह जीव सुख समझता है, जिनके मिलने से इसे प्रसन्नता होती है, और जिनके पृथक् हो जाने से इसे दुःख होता है क्या सचमुच में उनसे इसका कोई सम्बन्ध है ? पर पदार्थ पर ही रहेंगे, उनसे अपना कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता है । जीव जब तक पर में अपनत्व रखता है तभी तक पर उनके लिये सुख, दुःख का कारण होता है, परन्तु जब पर से उसकी मोह बुद्धि हट जाती है तो उसे पर सम्बन्ध जन्य हर्ष विषाद नहीं होते । ज्ञान, दर्शनमय संसार के समस्त विकारों से रहित, श्रध्यात्मिक सुख का भाण्डार यह श्रात्मतत्त्व रत्नत्रय की आराधना द्वारा ही अवगत किया जा सकता है । रत्नत्रय ही इस आत्मा का वास्तविक स्वरूप है, वही इसके लिये आराध्य है । उसी के द्वारा इसे परम सुख की प्राप्ति हो सकती है । ओरगिर्द कनसिंदे दुःखसुखदोळबाळ्वते तानेदु क'देरेदागळ्बयनप्प बोलूनरक तिर्यङ्मय॑दे॒वत्वदोळ् ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195