Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
कहते हैं। व्यवहार नय का स्वरूप 'व्यवहरणं व्यवहारः' वस्तु में भेद कर कथन करना बताया है। यह गुण, गुणी का भेद कर वस्तु का निरूपण करता है, इसलिये इसे अपरमार्थ कहा है। ___ व्यवहार नय के दो भेद हैं-सद्भूत व्यवहार नय और असद्भूत व्यवहार नय। किसी द्रव्य के गुण उसी द्रव्य में विवक्षित कर कथन करने का नाम सद्भुत व्यवहार नय है। इस नय के कथन में इतना अयथार्थपना है कि यह अखंड वस्तु में गुण-गुणी का भेद करता है। एक द्रव्य के गुणों का बलपूर्वक दूसरे द्रव्य में प्रारोपण किये जाने को असदभूत व्यवहार नय कहते हैं। इस नय की अपेक्षा से क्रोधादि भावों को जीव के भाव कहा जायगा। शुद्ध द्रव्य की अपेक्षा से क्रोधादि जीव के गुण नहीं हैं, ये कर्मों के सम्बन्ध से आत्मा के विकृत परिणाम हैं। इन दोनों नयों के अनुपचरित और उपचरित के दो भेद हैं। पदार्थ के भीतर की शक्ति को विशेष की अपेक्षा से रहित सामान्य दृष्टि से निरूपण किये जाने को अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है । अविरुद्धता पूर्वक किसी हेतु से उस वस्तु का उसीमें परकी अपेक्षा से जहाँ उपचार किया जाता है, उपचरित सद्भून व्यवहार नय होता है।
अबुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादि भावों में जीव के भावों की
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