Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 171
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ रत्नाकर शतक इस प्रकार मरण को सफल बनाने का प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिये। यह मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता है, इसे प्राप्त कर ग्नत्रय म्वरूप की उपलब्धि करनी चाहिये । मोह, ममता के कारण यह जीव संसार के मोहक पदार्थों से प्रेम करता है, वस्तुतः इसका इनसे तनिक भी सम्बन्ध नहीं है । इस शरीर की सार्थकता समाधिमरगा धारण करने में ही है, यदि अन्त मला हो गया तो सब कुछ भला हो ही जाता है। अतः प्रत्येक संसारी जीवको समाधिमरण द्वारा अपने नरभव को सफल कर लेना चाहिये। प्राणं माणव जन्ममं पडेद मेय्योनिच्चलु पंचकल्याणं पंचगुरुस्तवं परमशास्त्रं मोक्षसंधानचि ॥ त्राणं चित्तिन रत्न मूरिवन ळपिचिंतनं गेयवने-। जाणं मत्तिन चिंत कर्मरुळरै ! रत्नाकराधीश्वरा ! ॥१८॥ हे रत्नाकराधीश्वर ! गर्भावतरण, जन्माभिषेक, परिनिष्क्रमण, केवल और निर्वाणये पाँच कल्याण, अरहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधइन पंच परमेष्टियों के स्तोत्र-श्रेष्ठ शारत्र-मोक्ष उत्पन्न करने वाला आत्मस्वरूप का रक्षण-प्रात्मा के 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र' ये तीन रन सभी मनुष्यों के शरीर में सदा विद्यमान रहने योग्य प्राण हैं। जो मनुष्य प्रेम पूर्वक इन प्राणों का चिन्तन करता है वह चतुर है। इसके विपरीत, अन्न वस्तुओं के चिन्तन करने वाले मूर्ख माने जा सकते हैं ॥ १८ ॥ For Private And Personal Use Only

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